________________
भिक्षाचरी तप
इस शब्द पर जैनाचार्यों ने बहुत ही व्यापक रूप से विचार किया है और गाय की चर्या का आदर्श भिक्ष के लिए बताया है । भाचार्य जिनदास और हरिभद्र नादि से विश्लेषण पर से स्पष्ट होता है कि जिस प्रकार गाय अच्छी-बुरी घास का भेद किये बिना एक और से दूसरी ओर तक चरती हुई चली जाती है, वह किसी प्रकार शब्द, रस आदि विषयों में आसक्त न होकर सिर्फ उदरपूर्ति करने के लिए गामुदानिक रूप से घास चरती है,
और वह भी बन की हरियाली को नष्ट किये विना, उसे जड़ से बिना उसाड़े सिर्फ ऊपर-ऊपर से थोड़ा-थोड़ा साती है। इसी प्रकार मुनि सरस और नीरस आहार का विचार किये विना सामुदायिक रूप से भिक्षा के लिए चलता है। कोई राजा या सेठ का पर आ गया तब भी और किसी गरीव का पर आ गया तन्त्र भी सभी घरों से, थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण कर लेता है,
और स्वादिष्ट आहार आदि में मारा हुरे दिना सिर्फ संयम यात्रा के निर्वाह के लिए ही लाहार प्रहण करता है। इसलिए मुनि गोल निक्षा विधि को 'गोनरी' कहा गया है।
शास्त्रों में जहां भी मुनियों पी भिक्षा विधि का वर्णन आता है वहां . काही बाब सामने आता है रि--
उच्चनीयमनियम फुला अरमाणे उन, नीन और मध्यम गुलों में समान भाव से भिक्षा मारते हुए विगरते हैं । इसका अर्थ या नहीं है कि निक्षा कन-नीन शुन-अनुन मा । विमाको नरमे को भी पर चीन में आ जाये में प्रदेश पार जायेमागोमाको नाक धिरन है, विवेकहीन लिया है। सागर गर मामा- िान करतो पानि को या भी जानना गामि पिनमा परगोनमा कुरा मि मा मगित ?
tarent