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जन धर्म में तप
के समान है। तालपुट जहर जैसे जीभ पर रखकर ताली बजाये तब तक .. में मनुष्य को मार डालता है, उसी प्रकार मात्मशोधक के लिए उक्त तीनों वाते विनाशकारी हैं।
बहाचर्य की नव गुप्तियों में बताया गया है कि ब्रह्मचर्य का पालन करने । वाले साधक को प्रणीत .. अति स्निग्ध सरस आहार नहीं करना चाहिए
१ नो पणीयरसभोइ भयइ
२ नो पाण भोयणस्त अइ मायाए आहारइत्ता भवा आगम वाणी के प्रकाश में और अपने अनुभव के आलोक में यह बात प्रायः स्पष्ट है कि इंधन से जैसे अग्नि प्रचंड बनती है, वैसे ही सरर भोजन से कामाग्नि प्रचंड होती है। अत: आत्मसाधना करने वाले, ब्रह्मन यं का पालन करने वाले साधक के लिए सचमुन में ही रसयुक्त प्रणीत भोजन--विष के तुल्य है।
निशीय भाप्य में एक उदाहरण देकर समझाया गया है कि नोला । होने से साधु का यह भव ही नहीं, किन्तु अगला भय भी बिगड़ जाता है। उदाहरण इस प्रकार है
प्राचीन समय में एक मानायं ये--आर्य मंगु । शास्त्रों के अन्दै माता और बड़े ही मधुर बक्ता थे। जहां भी जाते यहां उनका अच्छा नकार सम्मान . होता। जनता में उनके प्रति ली श्रद्धा दी।
एकबार आमंगु मथुरा में नाये। मथुरा के अहानु जनों ने आमा गोबी मक्ति की आना को, दही, मी मिष्टान आदि प्रतिदिन दिने नगा। प्रतिदिन मत मधुर भोजन करने में जानामा मामी मर को गया। मधुर भोन आदि काग उन्हें मरा भी मानाने भगी। अब तो जग गये। गाम का पूरा होने पर भी
का नाम नहीं लिया ! विमा लोगों में भी गुदमी रहा। मामांग स भी आदाय में जाने को मारमा
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