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जैन धर्म में तप पुत्रवधू की सुन्दरता और साज-शृंगार से उसे कोई वास्ता नहीं था, उसकी नजर तो बस अपने भोजन की ओर लगी, वह उसी में मस्त था।
इस दृष्टान्त के द्वारा आचार्य ने बताया है कि साधु भी गृहस्थ के घर में भोजन के लिए जाता है तो वहां विविध प्रकार के रूप-रस-शब्द आदि विषयों के आकर्षण रहते हैं, किंतु बछड़े की तरह उन रूपादि विपयों से उसका कोई लगाव नहीं होता, वह तो सिर्फ अपने ग्राह्य भोजन की ओर ही ध्यान देता है और उसे प्राप्त कर गृहस्थ के घर से लोट आता है । भिक्षु को गृहम्य के घर में जाने पर इस प्रकार आसक्त रहना चाहिए।'
भिक्षा लेते समय मुनि को गृहस्थ के सामने अपना पूर्व परिचय भी नहीं देना चाहिए कि मैं अमुक परिवार का जन्मा हूँ--मेरा अमुवा घराना है। तथा न ही दाता की स्तुति करनी चाहिए। क्योंकि ये सब चेष्टाएँ तभी होती हैं जब भिक्षु के मन में सरस भोजन प्राप्त करने का लालच होता है। भोजन की आसक्ति व रसनोलुपता ही साधक को गिराती है । इसीलिए भगवान ने कहा है-साधक जो भिक्षा में उदर निर्वाह करता है, वह भिक्षा के ऊपर ही निर्भर नहीं रहता । वह तो अपने धर्म के साधन भूत देह की पालना के लिए ही मिक्षा ग्रहण करता है । इसलिए इस प्रकार का साधक मुधाजीवी होता है। मुधाजीवी यी व्याच्या करते हुए आचार्य ने बताया है-मुहाजीयो नाम जं जाति कुलादीहिं आजीवण पिसेसेहि परं न जीवति -जो जाति, कुल आदि में सहारे नहीं जाता, उसे मुधाजीयी कहा जाता है । वह तो निस्पृहतापूर धर्म माधना और धर्मोपदेश के लिए ही जीता है, इसी उद्देश्य से भिक्षा ग्रहण - करता है। उसके मन में यह भी विकल्प नहीं होता कि भिक्षा देने वाले को अमुफलाम बताऊ या उसका अमुक या सिद्ध करादू ? अगसर लोग कहते हैं.---"जिसगी नाचे बाजरी उसकी बजाय हाजिरी" किंतु यह बात उन लोगो के लिए है जो किसी कामना से, लोग लालच मे किमी का अफगाने जो पवावे गाल पोहानंद' होते है ये भी प्रकार की युक्ति गरे । मना
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१ कालिका जिनामानि० १६७.६८ २ आनागजिनदास निदाद २० ५. .