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लक्ष्य साधना
२९ पर पहुचायेगे । जैसे बडे नगर मे पहुचने के अनेक दिशाओ से अनेक मार्ग होते हैं, सभी मार्ग आकर उसके मुख्य केन्द्र पर मिल जाते हैं, यही बात इन मार्गों की है। फिर जैन धर्म तो समन्वयवादी है, वह विभिन्न मार्गों को देखकर झगडा नहीं करता, किंतु उनमे समन्वय करता है, वह कैची का काम करने वाला धर्म नहीं, कितु सूई का काम करने वाला है, टुकडो को जोड़ने वाला धर्म है। इसी दृष्टि से भगवान ने सब मार्गों को समन्वय करते हुए कहा है
जे आसवा ते परिस्सवा
जे परिस्सवा ते आसवा । जितने भी आश्रव–अर्थात् कर्म आने के, ससार मे भटकने के मार्ग हैं, उतने ही, अर्थात् वे सव मोक्ष के मार्ग बन सकते हैं, उन सब मार्गों से साधक निर्जरा भी कर सकता है, सिर्फ उसकी दृष्टि शुद्ध चाहिए। ध्येय मोक्ष का चाहिए, फिर तो विप भी अमृत बनाया जा सकता है । आचार्य ने कहा है
जे जत्तिआ अ हेउ भवस्स
ते चेव तत्तिया मुक्खे ।। जो, जितने हेतु, कारण ससार के हैं, वे और उतने ही हेतु मोक्ष के बन सकते हैं, वस, वनाने की कला आनी चाहिए। वह कला है वीतराग, दृष्टि ।
समन्वय
वधुओ । इस प्रकार अनेक बाते, अनेक मार्ग आपके सामने मैंने बताये हैं, शायद यह सुनकर आप भ्रम मे पड गये होंगे कि अब कौन से मार्ग का आचरण करें। ज्ञान, क्रिया, दान, शील, तप, भाव, गुरु सेवा, स्वाध्याय सूत्र चिंतन, एकात निसेवन, कपायपरिहार, विषयत्याग, शम, सतोप, वैराग्य, सरलता आदि विविध मार्ग आपने बता दिये, इनका निश्चय करना
१ आचाराग सूत्र ११४२ २ ओधनियुक्ति ५३