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समझदार है कि नहीं पहा भी त्याच्या खराब है । मन में बताया है स्प न धर्म में की ही ३ का वह पलेश ही है अतः
तप (मोक्षमार्ग) का पलिमंथु : निदान
.:. जो रयणमणग्धेयं विक्किज्जऽप्पेण तत्य कि साह ?? --- : - मूल्यवान मणि को बेंचकर कोई कांच का टुकड़ा चाहे तो क्या यह समझदारी है ? ऊपर से नीचे गिरने की भावना रखना क्या उचित है ? स्पष्ट उत्तर है कि नहीं !... ... ... ... __ जैन धर्म में पुण्य की स्पृहा भी त्याज्य बताई है, और पाप की भी ! सुख और दुःख दोनों की ही इच्छा रखनी खराब है । कारण सुख भोग से राग की उत्पत्ति होती है, दुख भोग से ढपं की। योगदर्शन में बताया है सुख से भी मन में क्लेशवृत्ति उत्पन्न होती है, पर वह क्लेश मीठा लंगता है, अत: उसे राग कहा है, और दुःख जन्य क्लेशवृत्ति बुरी लगती है अतः वह द्वप है ।२ इसीलिए सुख-दुख के संकल्प से मुक्त होकर निप्कामभाव के साथ जो धर्म का, तप का आचरण करता है, वही शांति व निर्वाण को प्राप्त होता है । गीता में कहा हैं
विहाय फामान् यः सर्वान् पुमांश्चरति निस्पृहः ।
निर्ममो निरहंफारोः स शांतिमधिगच्छति । जो सब प्रकार की कामनाओं को छोड़कर बिल्कुल निस्पृहभाव के साथ तप का आचरण करता है, वह ममता से मुक्त हो जाता है, अहंकार के बंधन तोड़कर शांति को प्राप्त कर लेता है। गौतम बुद्ध ने भी वितृष्णा को ही परम मोक्ष बताते हुए कहा है
कथं फया च यो तिण्णो विमोक्खो तस्स नापरो। जो सुख-दुख की विचिकित्सा से, कामना और तृप्णा से पार पहुंच गया है, उसके लिए अन्य मोक्ष क्या हो सकता है !
हां तो, निदान का उपयुक्त विवेचन इसी दृष्टि से किया गया है कि साधक अपने तप में न भौतिक सुख की कामना करें, और न भौतिक दुःख
निमार की शाम, वह ममत
१ पंचाशक विवरण २६८ २ सुखानुभायी रागः । दुःखानुशायी द्वेषः। -योगदर्शन २१७-८ ३ गीता. २१७१ ४ पटिसम्भिदामग्गो:-२६५८ . . .