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तप की महिमा बुद्ध ने तप को कठोर देह दण्ड के अर्थ मे कम लिया है, चित्त शुद्धि के प्रयास के अर्थ मे अधिक । हा, यह बात भी समझ लेनी है कि जैन धर्म भी तप को केवल देहदण्ड नहीं मानता, चित्त शुद्धि, ध्यान आदि को भी वह तप ही मानता है, और इस प्रकार विचार करे तो जैन धर्म का आभ्यन्तर तप बौद्ध ' धर्म मे भी अपनाया गया है ।
बुद्ध ने भिक्षुओ के लिए अति भोजन का वर्जन किया है, साथ ही एक समय भोजन का विधान भी । रसासक्ति का निषेध है। प्रायश्चित के रूप मे बौद्ध ग्रथो मे प्रावारणा का विस्तृत विधान है। स्वाध्याय एव ध्यान का भी बौद्ध साधना में काफी विस्तार के साथ वर्णन है !
बुद्ध के निर्वाण के बाद तो सिद्ध, नाथ, धुतग आदि साधुओ मे तप की अनेक कठोर प्रक्रियाएं चल पडी । वे जगलो में रहकर विविध प्रकार की तपश्चर्या करते थे। इसीलिए डा० राधाकृष्णन बौद्ध साधको की तपस्या के विषय मे लिखते हैं-"यद्यपि बुद्ध सैद्धान्तिक दृष्टि से निर्वाण की उपलब्धि तपश्चर्या के अभाव मे भी सभव मानते हैं फिर भी व्यवहार मे तप उनके अनुसार अति आवश्यक सा प्रतीत होता है ।२ बौद्ध साधको की तपस्या ब्राह्मण ग्रन्थो मे वर्णित तपश्चर्या से कम कठोर प्रतीत नही होती है।"3
भारत के वैदिक एव बौद्ध-दोनो ही धर्मों में तप का अपार महत्व है, तप को जीवन-शुद्धि और सिद्धि का प्रमुख तत्त्व माना है ।
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१ दीपवश २ इडियन फिलोसफी, पृष्ठ ४३६ प्रथम भाग ३ वहीं