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जैन धर्म में तप ..
राग्य, २-त्यविज्ञान, ३---निग्रंन्यता, ४-मनित्तता, ५--- परिग्रहलय.. ये मान के हेतु हैं। . . oe स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन, ध्याते स्वस्मै स्वतो यतः । पट्कारकमयस्तस्माद, व्यानमात्मैव निश्चयात् ।।
-तत्त्वानुगासन ७४ आमा का आमा में, आत्मा द्वारा, आत्मा के लिये, आत्मा से ही ध्यान करना चाहिये । निश्चयन में पट्कारकमग- यह आत्मा ही ध्यान है।
निश्चयाद् व्यवहाराच्च, ध्यानं द्विविधमागमे । स्वरूपालम्वनं पूर्व, परालम्बनमुत्तरम् ॥
-तत्यानुशासन ६६ निन प्टि में और अपहार दृष्टि से ध्यान दो प्रकार का है। प्रथम
में स्वरूप का आलम्बन है एवं दुसरे में पर वस्तु का मालम्बन है। 5? स्वाध्यायात् ध्यानमध्यास्तां, व्यानात् स्वाध्यायमामनेत् ।
ध्यान · स्वाध्यायनंपत्त्या, परमात्मा प्रकाशते ।। यथान्यासेन शास्त्राणि, स्थिराणि सुमहान्त्यपि । नयायानापिसुत्ययं लभतेऽभ्यासवर्तिनाम् ।।
तत्यानुशासन पाध्याय से ध्यान का अभ्यास करना चाहिये और ध्यान में स्वाध्यान को नरिहार्य करना चाहिये । स्वाध्याय एवं ध्यान की संप्राप्तिो परमात्मा साबित होगांत अपने अनुभव में लाया जाता है। अन्यारा । महान भासा दिर होगा, उसी प्रकार अभ्यास करने वालों
भान पिरामा है। ८ कालान्तो विन्द पानं, मानवन्तो विजपम् । बामा लानः पठेन स्तोत्र-मित्ोष मुनिः स्मृतम् ।।
सामयि. हलो ETTE IIM स्थान ना होने पर नारा ६ नोकर सोt rifigy ।