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________________ परिशिष्ट २ ६२ - जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा णच्चा न गवेसइ, न गवसंतं वा साइज्जइ"........"आवज्जइ, चउम्मासियं परिहारठाणं अणुग्घाइयं । -निशीथं भाष्य १०।३७ · · यदि कोई समर्थ साधु किसी साधु को बीमार सुनकर एवं जानकर .. बेपरवाही से उसकी सार-सम्भाल न करे तथा न करने वाले की ____ अनुमोदना करे तो उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है। दव्वेण भावेण वा जं अप्पणो परस्स वा। उवकारकरणं, तं सव्वं वेयावच्चं । ___-निशीथचूणि ६६०५ भोजन, वस्त्र आदि द्रव्य रूप से और उपदेश एवं सत्प्रेरणा आदि भाव . . रूप से जो भी अपने को तथा अन्य को उपकृत किया जाता है, वह सब वैयावृत्य है। स्वाध्याय : ६४ सझाए वा निउत्तण सव्वदुक्खविमोक्खणो । -उत्तराध्ययन २६।१० शास्त्रों का स्वाध्याय करते रहने से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है। ६५ सज्झायं च तओ कुज्जा सव्वभावविभावणं । -उत्तराध्ययन २६।३७ स्वाध्याय सव भावों (विषयों) का प्रकाश करने वाला है । सज्जाए णं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ । --उत्तराध्ययन २६१८ स्वाध्याय करने से ज्ञानावरण (ज्ञान को डकने वाले) कर्म का क्षय होता है । ६७ . नवि अत्यि, नवि अ होही, सज्झाय समं तवो कम्मं । -वृहत्कल्पभाष्य ११६६
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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