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जैन धर्म में तप
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चक्षुस्स एवं गहणं वयंति .... .
तं राग हे तु मणुनमाहु । . तं दोस हे अमणुन्नमाहु
समो य जो तेसु स वीयरागो। चक्षु रूप का ग्रहण करता है । वह रूप यदि सुन्दर है तो राग का हेतु है : और असुन्दर है तो द्वेप का हेतु । जो उस रूप में राग और द्वेप नहीं करके समभाव रखता है-वही वीतराग है । इन्द्रिय प्रतिसंलीनता का यही अयं . शास्त्रों में बताया है -
सोइदिय विसयप्पयार निरोहो, वा सोइदिय विसयपत्ते सु वा अत्येसु . रागदोस विणिग्गहो ।
-श्रोत्र इन्द्रिय को विपयों की ओर दौड़ने से रोकना, तथा श्रोत्र गत ... ... विपयों में राग-द्वेष नहीं करना-यह है श्रोत्र इन्द्रिय प्रतिसंलीनता ! ..
इन्द्रिय प्रतिसंलीनता : दो रुप इसमें दो बातें बताई गई हैं-(१) इन्द्रियों को विपयों की ओर दौड़ाना नहीं । विपयों की ओर उन्मुख नहीं होना।
(२) तथा सहज रूप में जो विषय इन्द्रियों के साथ जुड गये हैं उन विपयों में राग-द्वेप रूप विकल्प न करना ।
कुछ विद्वानों का कथन है-जीवन में कुछ भी करो, खाओ, पीओ, रा आदि का उपभोग करो, सुखपूर्वक जीवन जीओ -बस, उनमें आसक्त मत बनो-गीता में कहा है --असक्तो ह्याचरन् फर्म परमाप्नोति पूरुषः -- अनासक्त भाव से काम करने वाला परमपद को प्राप्त हो जाता है, अतः बग जीवन में समस्त कर्मों का एक ही शास्त्र है-"कर्म करो, किन्तु आसरत .. मत बनो!"
माजकल इस दृष्टि का गलत उपयोग होता है, व्यक्ति सुखवादी या
१ उत्तराध्ययन मूम ३२२२ २ भगवती मम २५ ३ गीता ३१६
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