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जन धात
( २
दिम पान-
या आहार
देव, नरक, तिर्यच एवं मनुष्य योनि में ये ही तीन प्रकार के माहार लिये जाते हैं। इनमें देवताओं का आहार बड़ा सुन्दर व मधुर रस, गंध, वर्ण व स्परां वाला होता है, जबकि नारकों का आहार-अंगारों के समान जलाने वाला, मुमुर के समान दाह उत्पन्न करने वाला अथवा बर्फ के समान : भत्यन्त शीतल ठिठुरन पैदा करने वाला होता है । पशुओं का आहार समाद भी होता है तथा दुखद भी ! मनुष्यों के आहार के चार प्रकार बताये हैं:
(१) अशन-दाल-रोटी-भात आदि । (२) पान-पानी आदि पेय पदार्थ । (३) खादिम-फल-मेवा आदि ।
(४) स्वादिम-पान-सुपारी-लौंग आदि । मनुप्य साधारणतः यह चारों प्रकार का आहार लेता है और इसी में से जीवनी शक्ति प्राप्त करता है।
भोजन के आवश्यफ रस व तत्त्व आयुर्वेद की दृष्टि से आहार के पडस माने गये हैं
मधुर रस-मीठा-चीनी मधु आदि फटु रसकडवा-नींव वादि आम्ल रस-सट्टा-कांजी आदि तिक्त रस-तीसा-मिनं, करेला आदि फापाय रस-कला-आंवला आदि
लवण रस-नमक इन पदसों से मुक्त आहार मन को प्रीति, गरीर को बल य ओज प्रदान करता है । शारीर निर्माण में सभी रनों की आयज्य पाया रहती। तथा दूध, घृत आदि पदार्थो पो भी। किंतु प्रत्येक रामा, घी दूध धादि का उचित प्रमाण ही शारीर के लिए आवश्यक होता है, अधिए. मात्रा में कोई भी वस्तु उचित नहीं होती। मात्रा में अधिक तो अमृत भी हानि
, नबि लाहारे असणे, पाने, माटो, गा, -- स्थानांग ४३४०