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जैन धर्म में तप . की साधना में भी कर सकते हैं जो भिक्षाचर नहीं, जिन्तु गृहनर हैं । भिक्षा .. का मुख्य उद्देश्य है स्वाद वृत्ति की विजय ! क्योंकि भिक्षा में मनोनुकूल .. स्वादिष्ट भोजन प्राप्त होना दुर्लभ है. वह तो एक प्रकार का सौदा है, गृहस्थ के घर में जगा भोजन बना होगा, उसमें भी जो शुद्ध ऐपणिक होगा, गृहस्प देना चाहेगा और जितना देना नाहेगा--तब उसनी मात्रा में ही साधु को वह प्राप्त होगा। इसलिए स्वाद को, सन्इच्छा को जीते विना त सप गो आराधना नहीं की जा सकती । स इच्छा का विजय, आहार का विविध प्रकार से संकोच, अभिग्रह आदि गृहस्य सायक भी कर सकता है अत: भिक्षाचरी तप न सही, किन्तु उस तप के लक्ष्य की प्राप्ति गृहस्थ जीवन में की जा सकती है।
तप का चौथा मार्ग है-रस-परित्याग । रस परित्याग का अर्थ है-- ग-स्वादिष्ट भोजन दूध, दही, घी, मिष्टान्न आदि रस मग वस्तुओं का त्याग करना । यह त्याग साधु भी कर सकता है, तथा गृहस्य नी! उपवारस मादि तप की अलग-अलग काल मर्यादा भी है किन्तु रस परित्याग तप तो जीवन भर की सतत साधना है। यह तप मन में राय भाव ना होने एक ही किया जा सकता है, अतः अन्य तमों में इस तप में कुछ विशिष्टता भी. इसी साधना हर कोई कर सकता है, किन्तु माठिन है। अतः मात पिरति वयामप्टिको अपेक्षा रहती है।
___ रस क्या है? 'स' का अर्थ है, नीति बढ़ाने वाला-सं प्रीति विकशि कारण नोटा में बात में प्रीति उत्पन्न होती हो उसके गार में नौ गतीनिर यताये हैं कि उनके कारण कविता में प्रीमि लाकर पेक्षा होता है। जिस वस्तु को देखने मे, सुनने में, गाने में मन मेमसा बरि प्रीति एवं आयरन पंधा होता है में ... पही '' हो
---प्रो रामाया।