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ऊनोदरी तप
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हों, हंसता हुआ हों या रोता हुआ, अमुक विशेष वर्ण का-काला-गोरा आदि हों, कोप मुद्रा में हों, या प्रसन्न मुद्रा में हों- . इत्यादि प्रकार की भावनाओं के साथ भिक्षा दें तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा उपवास रखूगा।" ये सब अभिग्रह दाता के भावों से सम्बन्धित है, इन्हें उववाई आदि सूत्रों में भाव अभिग्रह के अन्तर्गत बताकर भिक्षाचरी में इस का समावेश किया है।
उक्त चारों अभिग्रहों के साथ जो भिक्षा आदि करता है-उसे पर्यवचर ऊनोदरी तप करने वाला कहा है ।
भाव ऊनोदरी में दाता से सम्बन्धित भावनाओं की अपेक्षा रखते हुए उववाई व भगवती सूत्र में कुछ विभिन्न प्रकार का वर्णन किया है । तप के साथ मनोविश्लेषण की दृष्टि से भी उसका अधिक महत्व है।
भाव मनोदरी यहां पर भाव ऊनोदरी से तात्पर्य है-~-भाव सम्बन्धी अनोदरी । भाव का अर्थ है आन्तरिक वृत्तियां । क्रोधमान-माया--लोन-आदि कषायों को आन्तरिक वृत्तियां कहा जाता है । इन वृत्तियों गा अर्थात् गापायों का सयंया क्षय करना-साधक का लक्ष्य है। किन्तु साधना कोई जादूगी छटी तो नहीं है कि घुमाई ओर कमायों गा धाय हुआ। धीरे-धीरे जैसे साधना आगे बढ़ती है, साधक का मनोबल लागत होता है, वियक प्रबुद्ध होता है, गरी-वैसे फपाय क्षीण होती जाती है । कपायों को क्षीण अर्थात् दुवंत मारते रहने की यह प्रक्रिया--भाष जनोदरी तप माना गया है। जैसे आहार को गामी गारना, वैसे ही कषायों की कमी मारना-प्रोमो, मान को, माया गो, लोग गो, कामह गो, अधिक बोलने की आदत इसो म माथ-निद्रा आदि . हो पति को कम करो भाना---नव उनादरी में आ जाता है। पूछा गया है निभाय गोदरी गा ? उत्तर में बता :
बप्प पोहे, माप मागे, अपनाए जाए मोह मापस अप्प से तंभावो मोरिया
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माई मार परियार