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________________ ध्यान-तप चंचल मन योगीराज आनन्दघनजी ने भगवान की स्तुति करते हुए कहा हैप्रभो ! मैं आपके चरणों में मन को लगाना चाहता हूं जैसे भंवरा फूलों के रस में लीन हो जाता है वैसे ही मैं मन को आपके चरणों में लीन कर देना चाहता हूं किन्तु यह मन बड़ा चंचल है, आपके चरणों में क्षण भर ठहरता है और फिर भाग जाता है । वश में आता ही नहीं। मैंने तो समझा में जाण्यु ए लिंग नपुंसफ सकल मरवने ठेले । बोजी घाते समरथ वे नर एह न कोई न झेले। कुंथ जिनवर रे ! मन किम हो न बुझे । यह मन नपुंसक है । (संस्कृत में मनस् शब्द को नपुंसक लिंगी माना है।) और मैं मदं हूं, समर्थ पुरुष हूं इसको शीघ्र ही हराकर अपने अधीन कर लूंगा! पर यह नपुंसक तो ऐसा जबर्दस्त निकला कि बड़े-बड़े समर्थ मनुष्यों को भी धूल चटा देता है । वीरों को भी भटका देता है और कैसे भी वश में नहीं आता। वास्तव में मन की ऐसी ही स्थिति है। पवन को पकड़ कर रखा जा .
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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