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जैन धर्म में तप
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( ३ ) तत्त्व विशेष का प्ररूपण करने के लिये व्याख्यानकर्ता एवं ग्रन्थकर्ता अपने आप प्रश्न उठाता है एवं फिर उसका समाधान करता है । इस प्रकार का प्रश्न अनुयोगी प्रश्न है । जैसे—-आगम में "कई किरियाओ पन्नताओ" यो प्रश्न उठाकर पांच क्रियाओं का स्वरूप समझाया गया है ।
( ४ ) सामनेवाले को अनुकूल करने के लिये - "आप कुशल तो हैं"... इत्यादि शिष्टाचार रूप जो प्रश्न पूछा जाता है, वह अनुलोम प्रश्न है । (५) प्रश्न का उत्तर जानते हुए भी गौतमआदिवत् जो प्रश्न पूछा जाता है, वह तथाज्ञान प्रश्न है । केशीस्वामी द्वारा किये गये प्रश्न भी इसी कोटि के हैं ।
( ६ ) प्रश्न का उत्तर न जानते हुए अज्ञानी व्यक्ति द्वारा यत्किचित् प्रश्न किया जाता है वह अतथाज्ञानप्रश्न है ।
१३. पृष्ठ ४६६ पर धर्म कथा के चार भेद बताये गये हैं । इन चारों के चार-चार अन्तर्भेद करके कुल १६ भेद भी किये गये हैं । इनका विस्तृत वर्णन स्थानांग ४४२/२८२ की टीका तथा दशवैकालिक अ० ३ की नियुक्ति गाया १६७-६८ की टीका में प्राप्त होता है । वह वर्णन विशेष ज्ञातव्य होने से यहां दिया जा रहा है
१. आक्षेपणीधर्मकथा - श्रोताओं को मोह से हटाकर धर्मतत्व की ओर आकर्षित करने वाली कथा आक्षेपणी कहलाती है । यह चार प्रकार की होती है- १. आचारआक्षेपणी, २. व्यवहारआक्षेपणी ३. प्रज्ञप्ति आक्षेपणी, (४) दृष्टिवाद आक्षेपणी
(क) केश- लोच अस्नान आदि साबुआचार के द्वारा अथवा ददावैकालिकआचारांग आदि आचार-प्रदर्शक सूत्रों के व्याख्यान द्वारा श्रोताओं को तत्व के प्रति आकपित करने वाली कथा आचार-आक्षेपणी हैं ।
(स) किसी तरह का दोष लगाने पर उसकी शुद्धि के लिये आलोचना आदि प्रायश्चित्त अथवा व्यवहार बृहत्कल्प वादि सूत्रों के व्याख्यान द्वारा