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उक्त शब्द में अर्थ को ग्रहण नहीं कर एक अहोरात्र भोजन न करना मात्र . इतना अर्थ ही ग्रहण किया गया है । इसे ही उपवास कहते हैं।
उपवास का प्राचीन नाम अभक्तार्थ भी है । भक्त का अर्थ है भोजन ! अ का मतलब है-प्रयोजन । जिसमें भोजन का कोई प्रयोजन नहीं हो, वह तप यभक्तार्थ है । अर्थात अशन पान खादिम स्वादिम इन चारों अथवा पानी की छोड़कर तीनों आहार का जिसमें त्याग हो,उस अभक्तार्थ को ही उपवास हा जाता है । उपवास को 'नउत्य भत्ते' चतुर्थ भक्त, बेले को 'घट्ट भक्त तेले को 'अट्टम भक्त नऔर इसी प्रकार चोले को दसम भक्त तथा आगे के उपयामों को दो-दो भक्त अधिक जोडकर बताया गया है । मासिक तप. गो माराममण एवं छह माग के तप को छमासी कहा जाता है।
उपवाग के आगे अनेक प्रकार के विचित्र-विचित्र उग्र तपोफर्म का वर्णन .. शास्त्रो में मिलता है । अंतगड़ में। यह तप करने वाले साधकों गे नामों का उल्लेग भी आता है। उपवाई गूपर में भगवान के श्रमणों का जहां वर्णन किया गया है वहीं बताया है-भगवान के अनेक भिक्ष, कानगावलीत करते थे, अनेक भिक्ष एकावली तप, अनेक भिक्ष, महासिंह निष्पीडित सण, . . अनेक भिक्षु भवप्रतिमा, अनेक भिक्ष, महाभद्र प्रतिमा, अनेक भिक्ष सतोभद्र प्रतिमा, अनेक भिक्षा मायंबिल वर्धमान तप, अनेक भिक्ष, मालिको नि प्रतिमा, अनेक भिक्ष द्विमासिनी भिक्ष प्रतिमा में सप्त मालिगो भिक्ष प्रतिमा, अनेक निक्ष, एक अहोरात्र प्रतिमा, अनेर भिटा प्रथम-द्वितीम-तीय सअहोराण प्रतिमा, अनेक मिा एमरामि प्रतिमा अनेक मिश, माता
तमिमा प्रतिमा, बनेग मिक्ष पवमान नन्द प्रतिमा बनेक भिक्षु यसमा गद प्रतिमा तारने में।
सावन के अतिरिश भी अंग गम में गुणारत्न संवत्सर तार, ना. गानी गर, गुमानी बार, महीना प्रतिमा आदि का भी गर्माना