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तप की परिभाषा
कायक्लेश और कायोत्सर्ग तप होगा | मन के अहकार और कषायो का त्याग होगा-तभी विनय तप एव वैयावृत्य तप होगा । इस प्रकार जबतक इच्छाएँ नही रुकेगी तब तक तप नहीं हो सकेगा, सिर्फ मुह पर या पेट पर पट्टी बाघ लेने से कोई तपस्वी नही हो सकता किन्तु जो इच्छाओ पर सयम कर लेगा, मन को जीत लेगा तभी वह तपस्वी हो सकेगा। हा, तो इसी दृष्टि से तप का अर्थ हुआ~~-इच्छाओ का सयम । इच्छाओ का निरोध । ___तप की इस परिभाषा ने यह स्पष्ट उद्घोषित कर दिया है कि जो परम्पराएं सिर्फ देहदमन मात्र को तप मानती है वे तप के सपूर्ण स्वरूप से अन भिन्न है । तप वास्तव मे देह दमन तक सीमित नही है उसका अकुश इच्छा और वासना पर रहता है। इस परिभाषा ने तप के बाह्य और आभ्यन्तर-~ये दो स्वरूप बताकर दोनो को ही महत्व दिया है।
संयम भी तप है . शास्त्रो मे जहा-जहा सयम का वर्णन आया है, वहा-वहा तप का वर्णन अवश्य आया है, क्योकि जैसे जल के बिना मछली जीवित नही रह सकती, हवा के बिना अग्नि प्रज्वलित नहीं हो सकती, वैसे ही सयम के बिना तप की साधना भी चल नही सकती, वास्तव मे सयम और तप दो शब्द हैं, दोनो का भाव एक हा है। इन्द्रिय सयम, मन सयम, वचन सयम, ये सब तप के ही अन्तर्गत आते हैं। भगवान महावीर ने धर्म का स्वरूप बताते हुए कहा है
अहिसा सजमो तवो। धर्म-अहिंसा, सयम एव तप रूप है। ऊपर से तीनो शब्दो का अर्थ अलगअलग लगता है, किन्तु गहराई मे उतरने से तीनो मे ही अभेद दृष्टिगोचर होगा। तीनो एक ही वस्तु के तीन दृश्य जैसे लगेंगे। इसलिए मुख्य रूप से सयम, नियम, इच्छा-निरोध आदि को तप ही कहा जा सकता है। आचार्य सोमदेव सूरि ने कहा है
इन्द्रियमनसो नियमानुष्ठान तपर
१ दशवैकालिक १११ २ नीतिवाक्यामृत श२२