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जैन धर्म मे तप
इच्छा निरोध-तप
तप की शाब्दिक परिभाषा आपके सामने बताई गई है । अब उसकी अर्थ-परक अर्थात् भाव परक परिभाषा भी आपके सामने है ।
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वैसे जैन सूत्रो मे तप शब्द का हजारो लाखो बार प्रयोग हुआ है, वह जैन धर्म का प्राण समझा जाता है, जैन आचार की जननी भी तप ही है, किन्तु फिर भी आगमो मे तप की सीधी परिभाषा कही नही दी गई है । तप के फलादेश पर ही उसकी परिभाषाएँ निकल सकती हैं। जैसे कोई यह नही पूछता कि मा किसे कहते है, वैसे ही जैन साधको ने भगवान से कही यह नही पूछा कि 'प्रभो । तप किसे कहते हैं ? क्योकि वह माता की तरह हर साधक की परिचित पद्धति थी । तप का अर्थ क्या पूछना ? वह तो जीवन का सार ही है । किन्तु वाद में जब तप से साधक कुछ दूर हटने उसे तप की परिभाषा भी समझानी पडी कि तप का क्या अर्थ है, कहते हैं ?
लगा तो
तप किसे
तप की भाव-प्रधान परिभाषा करते हुए एक आचार्य ने कहा हैइच्छा निरोधस्तप
इच्छाओ का निरोध करना तप है ।
इस परिभाषा का वीज उत्तराध्ययन सूत्र मे मिलता है, जहा पर एक
प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने बताया है—
पच्चक्खाणेण इच्छानिरोह जणयह
प्रत्याख्यान - अर्थात् त्याग करने से इच्छाओ का निरोध हो जाता है । त्याग से इच्छा - आशा तृष्णा शात हो जाती है । वास्तव मे तप की यह भावात्मक और व्यापक परिभाषा है । जैन दर्शन मे समस्त त्याग प्रत्याख्यान सयम आदि को तप के अन्तर्गत मान लिया गया है, क्योकि जबतक त्याग नही होता, आशा तृष्णा छूटती नही तब तक सयम कैसे होगा ? और सयम नही होगा तो तप कैसे होगा ? भोजन की इच्छा का त्याग होगा तभी उपवास तप हो सकेगा ? शरीर की सुख-सुविधा को तृष्णा का त्याग होगा तभी
१ उत्तराध्ययन २६।१३