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जैन धर्म में तप
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जो आत्मा को कलुपित मलिन करता है, वह मानसिकभाव और वृत्ति कपाय कहलाती है |
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अन्तर वृत्तियां जव मलिन होती हैं, तो जीव कर्म करता है । कर्म से जीव दुखी होता है, और फिर संसार में परिभ्रमण करता है इसलिए जीव के दुःखों का एवं संसार भ्रमण का निमित्त होने के कारण कपाय की इस आशय की अन्य व्युत्पत्तियां भी की गई हैं । दिगम्बर आचार्य वीरसेन ने बताया है
दुःख शस्यं कर्मक्षेत्र कृपन्ति फलवत्कुर्वन्ति इति कषायाः
जो दुःख रूप धान्य को पैदा करने वाले कर्मरूपी खेत को कर्पण करते हैं, उन्हें फलवान बनाते हैं—वे क्रोध, मान माया आदि भाव कपाय कहलाते. हैं | आचार्य भद्रबाहु ने कहा है
संसारस्य उ मूलं धम्मं तस्स वि हुति य फसाया ।
संसार का मूल कर्म है, और कर्म का मूल है कपाय भगवान महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन में मुनियों को संबोधन करके स्पष्ट कहा था, 'मनुष्य दुखों से घबराता है. पर यह नहीं सोचता कि इन दुखों का मूल क्या है ? इस दुःख रोग की जड़ कहां है ? दुःखों का कारण है— जन्म-मरण । जन्म मरण क्यों होता है ? कर्म के कारण ! यदि कर्म मुक्त होगए, तो फिर जन्ममरण नहीं होगा ? वीज जल गया तो वृक्ष हरा-भरा नहीं हो सकेगा ! जन्ममरण का, मृत्यु चक्र का मूल कारण है कर्म - फम्मं च जाई मरणस्स मूलं तो तब दीप कर्म पर आगया, अब यह देखिए कि यह कर्म जो सब रोगों की जड़ है, जन्म-मृत्यु का चक्र चलाता है, वह कर्म कहां से पैदा होता है ! कर्म तो द चोर है, इस चोर को जन्म देने वाली मां कौन है ? जरा गहरा विचार करेगे तो तुरन्त आपके ध्यान में जायेगा - रागो दोनो वियफम्म बोयं-- इस कर्म का बीज है राग और द्वेष ! कपाय ! चार कपायों में माया और लोन
१देशिए धवला टीका, (श्रमण सूत्र . २५० )
आचारोग निर्मुकः १८६
उतराध्ययम ३२१७