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प्रतिसंलीनता तप
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हुई रहती हैं जैसे मदिरा का नशा चढ़ा हो। दुर्वासा ऋषि की भांति जव देखो तभी क्रोध में लाल !
२. कुछ मनुष्य राख से ढँकी अग्नि की भांति ऊपर से शांत दीखते हैं, किन्तु जैसे ही कटुवचन, अपमान आदि की हवा का एक झोंका लगा कि शांति की राख उड़ जाती है और उनका जाज्वल्यमान रूप सामने आ जाता है । ऊपर से शांत, शीतल दीखते हैं, किन्तु क्रोध का प्रसंग आते ही अपने को रोक नहीं सकते, बस, दूध की भांति ऊफन जाते हैं, सोड़ावाटर की बोतल की तरह ऊफान खा जाते हैं। पं० वनारसीदास जी, जो आगरा के निवासी थे, और जैन धर्म के बहुत गहरे विद्वान थे उनके जीवन का एक संस्मरण है । एकवार एक महात्माजी उनके गांव में आये । लोगों ने बनारसीदास जी के पास महात्मा जी की बहुत प्रशंसा की, कहा- बड़े ही शांत स्वभावी है । बनारसीदास जो उनके के पास गये । उनका नाम पूछा, महाराज ! आपका शुभ नाम क्या है ?
महात्मा जी ने गंभीरता के साथ कहा - " इस आत्मा का तो कुछ भी नाम रूप नहीं, यह तो नामातीत है, देह को लोग शीतलदास कहते हैं ।"
कुछ देर बातचीत करने के बाद वनारसीदास जी ने कहा- महाराज ! आपने नाम तो बताया था, लेकिन मैं भूल गया एक बार फिर कृपा कीजिए ।
इस बार महात्माजी थोड़े तेज हो गए और बोले- बताया था न, शीतल दास !
हां ! हां ! महाराज ! याद आगया ! वनारसीदास जी वोले । बातचीत करके उठने लगे तो फिर नाम पूछ बैठे। इस बार महात्मा जी की आंखें लाल हो गई, बोले- " दिमाग में क्या गोवर भरा है ? दो वार बता दिया फिर भी याद नहीं रहा ! सुनले मेरा नाम है शीतलदास !"
क्षमा मांगकर बनारसीदास जी जीना से नीचे उतरे, कुछ देर इधर उधर टहलकर फिर महात्मा जी के पास बाये । बोले-"महाराज ! में तो फिर नाम भूल गया, एकबार फिर बता दीजिए ।"