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पंपावृत्य तप
४५३ गहन है, इससी बारीकियों को योगी लोग भी नहीं समझ पाते । सेवा में सयंप्रथम आवश्यकता है। विवेक की ! रिस पनि को, किस ममय किर प्रकार की सेवा की जरूरत है यह ध्यान में रखना चाहिय। गह नहीं कि प्रसंग की आवश्यकता कुछ और ही हो, और सेवा कुछ अन्य प्रकार में हो रही जाग ! प्राचीन भाचायों में समय अनुसार सेवा के अनेक मारी को व्याख्या की है । अने कहा है----
भत्ते पाणे सपणासणे य, पहिलह पायमिछमबा।
राया तेणे दंड गाहे गेसन्नमते थ।' आवश्यकता होने पर भोजन (नाहार) देना, पानी देना, सोने के लिए, विस्तर (11) आदि देना, आसन देना, गुगजनों आदि का प्रतिशत हार देना, पासपोधना, रोगी हो तो (नमका रोगी) उनके लिये दमा आदिमा प्रवनमा यदि रावलले गमगाते होंगो सहारा देना, राजा आदि के होने पर यं, आदि को मा, मोर आदि गाना। पहिली मोर संचन सर लिया हो, अपराध निया हो तो सो उनी रिद्धि कराना, सोई गंगी हो तो कर लिया आदि
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