________________
४५६
जैन धर्म में 4
स्वाध्याय गब्द को दगुल्गत्ति करते हुए कुछ विद्वानों ने यह भी पताना .. है--स्व स्य स्यस्मिन् अध्याय :-अध्ययनं-स्याध्यायः अपना अपने ही भीतर अध्ययन, अर्थात् आत्मचिन्तन, मनन, स्वाध्याय है।
जित प्रकार शरीर के विकास के लिए व्यायाम और भोजन की भाव. : क्यकता है उसी प्रकार मस्तिष्क-अर्थात् बुद्धि र विकास के लिए सम्मान (स्वाध्याय) की आवश्यकता है। अध्ययन से बुद्धि का भावान भी होता है मन की करारत भी होती है और नगे विचार, चिन्तन, गान आदिन में अच्छी गुराम भी मिलती है। इस प्रकार अघायन बुद्धिक विकास में माया
यहां पर स्मरण राना चाहिए कि सभी प्रकार का अध्ययन- जाय को कोटि में नहीं आता है। जैसे गलत तरीके से लिया गया आयाम शरीर को लाभ की जगह हानि पहुंना देता है, और अहितकार भोजन गरीर में गक्ति की जगह रोग पैदा करता है, उसी प्रकार गलत पुस्तक का विकारानेजक पुस्तकों का पालन बुद्धि की लिसित करने को बना र हुति एई कमजोर बना देता है । अग्लील साहित्य पाने वाले अपने मस्ति की तिजोरी में कामाला जमा हो है । उसले मन दुफ्ति are जोबन बिग आ है। इसलिए पुस्तकों के मान में बहुत ही विथ बनानाहिए। मा कामको पार को पलो वा सुन्दर, सदविचारों को जगार मला माहित rzो निसानाही परिभाषा में सामानों के मान को दी . FRE
को माना और न का
Facार का म
मगर ! MERE ३६. २६
नोवा REET
.