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________________ स्वाध्याय तप पहले बताया जा चुका है कि तप का उद्देश्य केवल शरीर को क्षीण करने का ही नहीं है, किन्तु इसका मूल उद्देश्य है-अन्तर विकारों को क्षीण कर मन को निर्मल एवं स्थिर बनाना, आत्मा को स्वरूप दशा में प्रकट करना । मानसिक शुद्धि के लिए तप के विविध स्वरूपों का वर्णन जैन सूत्रों में किया गया है, उनमें स्वाध्याय और ध्यान-ये दो प्रमुख हैं। स्वाध्याय मन को . शुद्ध बनाने की प्रक्रिया है और ध्यान मन को स्थिर करने की । शुद्ध मन ही स्थिर हो सकता है, इसलिए पहले मन की शुद्धि पर विचार करना चाहिए कि किन-किन साधनों से, किन प्रक्रियाओं से मन को निर्मल एवं निर्दोप बनाया जाय ! इसलिए आभ्यन्तर तप के चौथे क्रम में 'स्वाध्याय तप' रखा गया है । यहां हम स्वाध्याय तप पर विचार कर रहे हैं। स्वाध्याय को परिभाषा स्वाध्याय की परिभाषा करते हुए बताया गया है- सुष्ठ आ-मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः'-सत् शास्त्रों को मर्यादा पूर्वक पढ़ना, विधि सहित अच्छी पुस्तकों का अध्ययन करना स्वाध्याय है । १ आचार्य अभयदेव- स्वानांग टोका ५।३।४६५
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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