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तप का वर्गीकरण
९ वाह्य तप
२ आभ्यन्तर तप-तप के ये दो भेद कहे गये हैं ।
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वाह्य तप का अर्थ है - बाहर में दिखाई देने वाला तप ! जिस तप की साधना शरीर से अधिक सम्बन्ध रखती हो, और उस कारण वह बाहर में दिखाई देती हो वह तपः साधना बाह्य कहलाती है। जैसे उपवास है । उपवास का स्पष्ट प्रभाव शरीर पर पड़ता है। लंबे उपवासों से शरीर दुर्बल भी होता है, देखने वालों को यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि यह तपस्वी है । कायक्लेश, अभिन, भिक्षावृत्ति ये सब ऐसी विधियां है जो बाहर में साफ दिखाई देती हैं ।
आभ्यन्तर तप का अर्थ हैं- अन्तर में चलने वाली शुद्धि प्रक्रिया | इस का सम्वन्ध मन से अधिक रहता है । मन को मांजना, सरल बनाना, एकाग्र करना और शुभ चिंतन में लगाना - यह आभ्यन्तर तप की विधि है । जैसे ध्यान, स्वाध्याय, विनय आदि । हां यह बात भूल नहीं जाना है कि जैसे बाह्य तप में मन का सम्वन्ध भी रहता है, वैसे आभ्यन्तर तप में शरीर का भी सम्बन्ध जुड़ा रहता है । ऊनोदरी वाह्य तप है, फिर भी उसमें कपायों को ऊनोदरी का सीधा सम्बन्ध अन्तरंग से है । प्रतिसंलीनता वाह्य तप है, किन्तु अकुशल मन का निरोध, कुशल मन की उदीरणा और मनको एकात्र करना इसका सम्बन्ध भी ध्यान साधना से जुड़ता है जो स्पष्ट ही आभ्यन्तर तप है । वैसे ही विनय, वैयावृत्य नाभ्यन्तर तप है, जब कि इनकी प्रवृत्ति का सीधा सम्बन्ध वाह्य जगत से जुड़ता है । गुरुजनों का विनय, अपने साधमिकों का विनय क्या बाहर में दिखाई नहीं देते ? गुरु, दक्ष, रोगी आदि को नेवा करना भी सीधा बाहरी संपर्क में आना है, फिर भी इन्हें वान्यन्तर तप माना है। इस प्रकार गहराई से देखने पर पता चलता कि बाह्य एवं भाभ्यन्तर भेद तप की प्रक्रिया समझाने के लिए है, न कि एक को अ महत्व देकर दूसरे का महत्व घटाने के लिए !
लोगों को यह धारणा वन गई है कि बाह्य तप साधारण तप कुछ साम्यन्तर तप चढ़ा तप है । बाह्य का महत्व कम है,
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