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________________ ५४२ जैन धर्म में तप ४६ उद्घरिय सबसल्लो, आलोइय-निदिओ गुरु सगासे। होइ अतिरेगलहुओ, ओहरियभारोब्ब भारवहो । -ओपनियुक्ति ८०३ जो साधक गुरुजनों के समक्ष नन के समस्त शल्यों (कांटों) को निकाल कर आलोचना, निन्दा (आत्मनिन्दा) करता है, उसकी बात्मा उसी प्रकार हल्की हो जाती हैं, जैसे-सिर का भार उतार देने पर भार चाहा। ४७ जह वालो जंपंतो, कजमकज्जं च उज्जुयं भवइ । तं तह आलोएज्जा, माया • मयविप्पमुक्को उ ॥ . -ओपनियुक्ति ८०१ . बालक को जो भी उचित अनुचित कार्य कर लेता है, वह सब सरत भाप से कह देता है। इसी प्रकार साधक को भी गुरुजनों को समय देभ और अभिमान से रहित होकर यथार्थ आत्मालोचना करनी चाहिये। ४८ आलोयणापरियाओ, सम्मं संपढिओ गुरुसगासं। जइ अंतरो उ कालं, करेज्ज आराहओं तह वि॥ ___आवश्यक निति कत पापों की मालोचना करने की भावना से जाता हुआ व्यक्ति यदि गौर में मर जाये तो भी वह आराधक है। विनय: रायणिपस विणयं पउंगे। -दामा४ि१ को मे पड़ों (गनापिसमाप मानि पूर्वाधार माग्गिामायानं मनसा जगणं करे। मिमा पराति मालगिना इव पापया ।। शिरा
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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