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परिशिष्ट २
अनशन: ३० आहार पच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वोन्टिंदा ।
-उत्तराध्ययन २६३५ आहार का प्रत्याख्यान (त्याग) अनशन कहलाता है। इससे जीव आशा
का व्यवच्छेद करता है, अर्थात् लालसाओं से मुक्त हो जाता है । ३१ जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा। अण्णं भिक्खमणेसण मघते समणा अणाहारा।।
-प्रवचनसार ३२६ पर वस्तु की आसक्ति से रहित होना ही वात्मा का निराहार रूप वास्त विक अनशन तप है । अस्तु, जो श्रमण भिक्षा में दोष रहित शुद्ध आहार
ग्रहण करता है, वह निश्चय दृष्टि से अनाहार तपस्वी ही है। ३२ तदेव हि तपः कार्य, दुर्व्यानं यत्र नो भवेत् । ये न योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च ।
-तपोप्टक (यशोविजयजी कृत) तप बता ही करना चाहिए, जिसमें दुध्यान न हो और इन्द्रियों क्षीग न
हो । योगों में हानि न हो! ३३ सो नाम अणसण तवो, जेण मगोमंगुलं न चिोद। जेण न दिव हाणी जेण व जोगा न हायंति ।
__मरणानाधिनमो १३४ यही अनाना जिससे कि मन अमंगल नसोचे, दन्द्रियों को
हानि नो, और नित्य प्रति की योग-धर्म रिमाओं में विश्न न आए। ३ गतुर्विधासन-त्याग बातो मतो जिनः ।
माम माना गया है। अनोदरी:
हिगाहारा, मिनाहारा, अमावाला पजना नमाविमा विजिन्नत अमानं निगिनिया
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