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________________ प्रायश्चित्त तंप है, इसमें दोप सेवन कर साधक वापस उसकी बालोचना कर अपने विधि मार्ग में लौट जाता है। ___ उक्त कारणों से जो दोप सेवन होता है, साधक उसके लिए मन में पश्चा त्ताप आदि भी करता है, और जहां, जब, जिसप्रकार के प्रायश्चित्त की विधि होती है, वह पूर्ण कर आत्मा को शुद्ध बनाता है । प्रायश्चित्त के भेद यद्यपि दोष विशुद्धि रूप प्रायश्चित्त मूलत: हृदय का परिवर्तन ही है । किन्तु दोष व अपराध को गुरुता, तथा स्तर को ध्यान में रखकर उसको अनेक भेद भी किये गये हैं । कभी-कभी साधक से बहुत सामान्य अपराध होता है, और यह सुरन्त उसके लिए पश्चात्ताप करने लग जाता है। उस पश्चाताप से ही उसकी शुद्धि हो जाती है, अन्य किसी प्रकार के तपश्चरण की आव. श्यकता नहीं रहती। किन्तु कभी-कभी अपराध बहुत भारी होता है. माधक उसके लिए पश्चात्ताप तो जरूर करता है, किन्तु उस दोष की शुद्धि के लिए कुछ तपश्चरण आदि पी भी आवश्यकता होती है। यदि अपराध पर पनाताप न हो, उसको स्वीकार न करे तो उस स्थिति में अपराधी को प्रायश्चित्त नहीं दिया जा सकता कि जो दोष स्वीकार करने को भी पार नहीं, . उसका हृदय गुट कहां है? साल पहा है? जब हुदम सरल नहीं तो प्रायहिवस उसकी यया प्रियुद्धि पार समेगा? प्रायश्चित कोई जल शो नहीं जो पर बगरा अपने आप का द. अग्नि तो नहीं है, जो अपन-जाप म छ अलासी जाए. हा जब भी है, मन भी है. किन्तु भरा बंधा मादल है, पन्ह गो बंधी शनि जय र महामो सभी मपाई मोमो, अनि नमाओ और सर ही सालो सभी नरम होगी मी, सारा मानार, राधी को मनायना की प्रातिनिशिप जागा , if भार भर में
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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