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ब्धिप्रयोग : निषेध और अनुमति भाव है, और लब्धि-विस्फोट प्रमत्तभाव है, प्रमादसेवना है। प्रमाद कर्म वन्धन का कारण है-पमायं फम्ममाहंसु' प्रमाद स्वयं ही कर्म है । इसीलिए भगवती सूत्र में बताया गया है- जो साधक (गृहस्थ या मुनि) लन्धि का प्रयोग कर, प्रमादसेवना कर यदि पुनः उसकी आलोचना नहीं करता है, और अनालोचना की दशा में ही काल प्राप्त कर जाता है तो वह धर्म की आराधना से च्युत हो जाता है-नत्थि तस्स आराहणारे अर्थात् वह विराधक हो जाता है।
लब्धि-प्रयोग प्रमाद क्यों है ? इसका सीधा सा उत्तर है कि-लब्धि फोड़ना-एक प्रकार की उत्सुकता, कुतूहल और प्रदर्शन, यश एवं प्रतिष्ठा की भावना का परिणाम है। कभी साधक कुतूहल के वश में होकर लब्धि फोड़ता है, कभी अपना प्रभाव लोगों पर जमाने के लिए । कभी-कभी क्रोध के वश होकर किसी का अनिष्ट करने के लिए भी लब्धि का प्रयोग किया जाता है। ये सब भावनाएं राग-द्वेपात्मक हैं, जो प्रमाद-जन्य हैं, इस कारण लब्धि प्रयोग को भी प्रमाद-भाव माना गया है और प्रमाद भावना से मुक्त होना साधक का लक्ष्य है । तो जो कार्य उसे लक्ष्य के विपरीत दिशा में ले जाता हो, वह उसके लिए करणीय कैसे हो सकता है ? लब्धि बल से विविध रूप बनाने वाले अंबड को सुलसा श्राविका ने ढोंगी कहकर पुकारा, उसे नमस्कार नहीं किया इसका अर्थ यही है कि लब्धि का प्रयोग साधक के लिए विहित नहीं है, अनुमत नहीं है।
चमत्कार नहीं, सदाचार का महत्व यह एक निश्चित तथ्य है कि भगवान महावीर सदाचार को महत्व देते थे, चमत्कार को नहीं। शुद्ध चारित्र, निस्पृहभावना और वीतराग साधना में उनका विश्वास था, अपने शिष्यों को भी वे सदा यही उपदेश
१ सूमकृतांग १८३
भगवती सूत्र २०१६