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.. जैन धर्म में तप
अपने शरीर व नात्मा को पच्ची की पीत वर्ण कल्पना के साथ बांधना पार्थिवी धारणा है। इस धारणा में मध्यलोक को क्षीर समुंद्र के समान निर्मल जल से परिपूर्ण होने की कल्पना करें। उसके मध्यभाग में जम्बूद्वीप के तुल्य सुवर्ण के समान चमकते हुए हजार पत्तोंवाले (सहस्रदल) कमल की कल्पना करें । उस कमल के बीच में जहाँ कणिका होती है उस पर स्वर्णमय मेरुपर्वत की आकृति का चिंतन करें और फिर सोचें उस मेल्पर्वत के शिखर पर पाण्डुक वन में पाण्डुक शिला के ऊपर स्फटिकरत्न का उज्ज्वल सिंहासन बिछा है और मैं (आत्मा) उस सिंहासन पर योगीराज के रूप में बैठा हूँ। साधक जब इस प्रकार के दृश्य की कल्पना करता है तो उसका मन बड़ा ही शांत व सौम्य बन जात है, बड़ी पीतलता का अनुभव होता है। इस कल्पना में मन रम जाने से स्थिरता आती है । याज्ञवल्क्य के कथनानुसार पृथ्वीधारणा सिद्ध होने पर शरीर में किसी प्रकार का रोग नहीं होता।' स्पष्टता के लिए चिय संख्या १ देखें।
२ आग्नेयो धारणा-पाथिवी धारणा से आगे बढ़कर साधक आग्नेयी धारणा में प्रवेश करता है। आत्मा सिंहासन पर विराजमान होकर नाभि के भीतर हृदय की ओर जार मुख किए हुए सोलह पंखुड़ियों वाले रक्त कमल की कल्पना करता है । (कहीं-कहीं श्वेत कामल भी बताया है, पर अग्नि का वर्ण रक्त होने से कुछ आचार्यों ने रक्त कमल को ही मुख्य माना है) उन पंचुड़ियों पर अ आ इ ई उ ऊ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः इन मोलह स्वरों को स्थापना की जाती है, तथा कमल के मध्य में है' अदार की। कमल के टीक जार हृदय स्थान में नीचे की ओर मुल किए हुए आँधा आठ पत्तों वाला एक मदिया रंग मा कमल बनाना चाहिए। उसके प्रत्येस पते पर लाले रंग के लिये हुए नाटकों का चिंतन करना चाहिए ।
इस चिंतन में नाभि में स्थित कमल के बीच में लिए ' अक्षर के जारी सिरे रेक' में गे निकलाप धुएं की कल्पना की जाती है और
१ मोगवाशिद--निर्माण प्रारम (प्रकरण ८८.६२)