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बामामा और मर्यादा का आकुल होता रहार भी वह आग्रह , मन बाहे
तप का वर्गीकरण तप की महिमा में जैन धर्म में हजारों पृष्ठ लिखे गये हैं, हजारों गाथाएँ गाई गई हैं उस तप के सम्बन्ध में भी जैनधर्म हठवादी नहीं है । किन्तु समन्वयवादी है, उस तप की भी उपयोगिता देखकर ही वह चलता है, तप करने की भी सीमा और मर्यादा को मानता है। यह नहीं कि मन संक्लेश से भरा रहे, भूख-प्यास से चित्त आकुल होता रहे, देह-दमन से समस्त क्रियाएं एवं विधियां विशृंखल हो जाय और फिर भी वह आग्रह लिए बैठा रहे कि नहीं तप करते जाओ, प्राण निकले तो भले ही निकल जाय, मन चाहे जैसा संत्रास पाये पर तप करते जाओ ! ऐसा आग्रह जैन धर्म में नहीं है । वह कहता है-अमृत पीओ, किंतु वह भी मर्यादा के साथ ! तप करो, किंतु उसको भी मर्यादा है, सीमा है। सीमा को समझकर तप करो। भगवान महावीर ने कहा है
वलं थामं च पहाए सद्धामारोग्गमप्पणो।
खेत्तं फालं च विन्नाय तहप्पाणं निजजए। अपना शरीर बल, मन की दृढ़ता, श्रद्धा, आरोग्य तथा क्षेत्रकाल आदि का पूर्ण विचार करके ही तपश्चर्या में लगना चाहिए । आप कहेंगे-पया तप में भी कोई सीमा होती है ? जितना तप किया जाय उतना ही अच्छा है। हां, बात तो यह ठीक है कि तप जितना भी किया जाय करना चाहिए, किन्तु यदि तप नारते समय मन में संग्लेश पैदा हो, आकुलता और क्षुब्धता पैदा हो तो फिर उस तप में समाधि कैसे रहेगी। सोना नभी पहनते हैं, पर उतना सोना पहनना पया काम का जिससे गीर ही टूटने लगे
यह सोना पया फामफा जिससे टूटे अंग।।
'मिधी' तप यह पयों फरे जाहि समाधि मंग। जिम सोने में शोर टूटे, जिस तप से समाधि भंग हो, वह सोना और यह तप गया कामका:
लामको पता है भगवान अपनदेव समय में यष्ट तप भार
१ दावालिक ८।३५