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जैन धर्म में तप
अधिक ! एक विद्वान मुनिजी से तप की चर्चा चल रही थी । प्रसंग में किसी तपस्वी मुनिराज के दीर्घ उपवास और उसमें आतापना लेने की बात आगई। मैंने कहा-वे सचमुच बड़े उग्र तपस्वी हैं। अपने को विद्वान समझने वाले मुनि जी ने जरा उपेक्षा के साथ कहा- हां, ऐसी तपस्याएँ तो बहुत होती रहती हैं। ____ मैंने उनसे पूछा-आपने भी काफी लम्बे उपवास किये होंगे ? आतापना मादि ली होगी?
वे बोले- मैं इन वाह्य तपों में कम विश्वास करता हूं। ये बाह्य तप... है, साधना तो आभ्यन्तर तप की होनी चाहिए ? वही तो खास बात है ! . .
विद्वान मुनि के उत्तर ने मुझे झकझोर दिया । मैं सोचने लगा-क्या . इनकी विद्वत्ता इतनी ही गहरी है ? अभी तक इन्होंने तप का यही अर्थ समझा है कि वाह्य तप हलका है, आभ्यन्तर तप बड़ा है ? कितनी बड़ी ना समझी है ! लगता है इन्होंने सिर्फ बाह्य-आमान्तर शब्दों को पकड़ा है, इनकी गहराई को नहीं ! वास्तव में तो बाह्म में आभ्यन्तर और आभ्यन्तर में वाह्य समाया हुआ है । और फिर आश्चर्य तो यह कि बाह्य तप को हलका वताकर भी स्वयं कभी आभ्यन्तर तप की ओर नहीं चढ़े ! न कभी ध्यान किया हैं ? न सेवा और न और कुछ ! किन्तु फिर भी बड़ाई तो आभ्यन्तर तप की करते ही हैं।
तो यह एक गलत धारणा है। शास्त्रों में . आभ्यन्तर तप का जो महत्त्व है वहीं महत्व वाह्य तप का है । हां ! किसी एक तप का ही आग्रह करना गलत है, दोनों को समान आराधना करना ही वास्तव में सम्यक् आराधना . है । भगवान महावीर ने कठोर उपवास भी किये और ध्यान साधना भी की । वाहा-आभ्यन्तर का सुमेल करके उन्होंने अपनी साधना में सिद्धि प्राप्त की । यदि हम गन्नोरता में साथ देखें तो तप में बाह्य आभ्यन्तर का भेद बहुत मौलिक भेद नहीं है । जैसे किसी एक ही गजप्रासाद में एक आभ्यन्तर - भाग होता है और दूसना चाहा माग । आन्यन्तर भाग राजा के अन्तरंग