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तप का वर्गीकरण
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जीवन का केन्द्र होता है और वाह्य भाग राज्य संचालन आदि व्यवस्था का । किन्तु इसमें यह कहना कि वाह्य भाग कम महत्व का है आभ्यन्तर अधिक ! यह एक गलत बात होगी राज्य की दृष्टि से दोनों का ही महत्व है और दोनों ही अपनी-अपनी जगह में आवश्यक व उपयोगी हैं ।
जैसे एक ही पुस्तक के दो अध्याय होते हैं । एक ही महल के दो खण्ड होते हैं, एक सिक्के के दो पहलू होते हैं, वैसे ही तप के ये दो पहलू हैं । दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं । वाह्य तप के बिना केवल आभ्यन्तर तप की साधना कठिन क्या, असम्भव प्राय: है । और आभ्यन्तर तप के अभाव में केवल बाह्य तप देह दण्ड मात्र है । जो सिर्फ अपने को तत्त्वज्ञानी व अध्यात्मवादी दिखाने के लिए वाह्यतप की उपेक्षा करता है; उसकी असारता बताता है वह वास्तव में जैनतत्वज्ञान से ही अपरिचित है । यदि वाह्य तप अनुपयोगी होता - तो भगवान ऋषभदेव क्यों एक वर्ष तक भूखे रहकर कष्ट उठाते, क्यों भगवान महावीर साढ़े बारह वर्ष के साधना काल में ग्यारह वर्ष तक का काल उपवास आदि में व्यतीत करते ! क्यों घप्ता अनगार चौदह हजार श्रमणों में सर्वश्रेष्ठ तपस्वी घोषित किये जाते ! आखिर बाह्य तप भी कुछ शक्ति है, कुछ साधना है और बड़ी चमत्कारी साधना है । साधक के मनोबल और कष्टसहिष्णुता की जितनी कसौटी वाह्य तप में होती है, उतनी आभ्यन्तर में नहीं, साधक के जीवन स्वर्ण के लिए वाह्य तप अग्नि है और आभ्यन्तर तप उस पर पालिश है । सोना पहले अग्नि में शुद्ध हो जायेगा तभी तो उस पर पोलिश की जायेगी ? क्या कभी अशुद्ध सोने पर पालिश या चमक की जाती है ओर की जायेगी तो वह कितने समय तक टिकेगी ? इसी प्रकार बाह्य तप से जब तक मानसिक मलिनता दूर नहीं हो जाती हृदय शुद्ध नहीं हो जाता तब तक ध्यान, विनय, स्वाध्याय कैसे होंगे ? इसीलिए वाम्यन्तर तप से पहले बाह्य तप का क्रम रखा गया है, वाह्य तप को साधने के बाद साधक वाभ्यन्तर तप की ओर बढ़ता है ।
दोनों का समन्वय हो, एक बात ध्यान में रखनी है कि जैन धर्म केवल बाह्य तप का ही आग्रह