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बंगायत्य तप
यंसे ही दूसरों को सुख देने से स्वयं की बास्मा में एक महत प्रदुल्लता
और प्रसन्नता की अनुभूति होगी। यह आत्म-प्रफुल्लता ही साधक के लिए सर्योपरि वस्तु है, ने ही प्राप्त करना है और यह सेवा के द्वारा प्राप्त होती है इसलिए सेवा पारना, दूसरों को सुन पहुंचाना वास्तव में
अपनी आत्मा को हो मुख पहुंचाना है। २. जैन दर्शन प्रायो माय में समता का भाव रखता है, अभी अपनी मारना
के समान ही दसरों को समानता है। अपने मुरादुर के समान दूसरों के सुस-दुतको समझता है। इसी के साथ यह प्रत्येक प्राणी को अपना मित्र भी मानता है, मिति मे सम्म भूएन मेरी समस्त प्राणिजगत में साप मंत्री है। मित्रता का नियम है--निम के दुरा-दुख में अयोगी ओर सहभागी बनना। मिा का दुधपुर मारना, कष्ट में उसकी सेवा कारमा निध का धर्म है। अत: मित्रता के नाती भी हमें प्रत्येक प्रामीको
पा-थपाकरनी चाहिए। ३. रा अब में, मंकट की दवा में मनुष्य न होन स
भापित शुध और व्याकुल हो उठता है। नी मा में मी, म ष्ट भी हो सकता है। अपनी मांदार सुनसार अमरम
नवाचार प्रसा -पिता रामान है। मायको, मन्ट बनामार में दि कोई पाला . RETRIE 'ना है, जो साधारा और 4 जजो firrit, RAM या
पाप