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________________ ४.५२ जैन धर्म में ता ६ सेह येयावच्चे-नय दीक्षित मुनि की सेवा ७ कुल येयावच्चे-कुल की सेवा ८ गण पावच्चे-गण की सेवा ६ संघ यावच्चे-संघ की सेवा १७ साहम्मिय वेयावच्चे-सावमिक की सेवा धन दस भेदों में साधु जीवन का समस्त सम्बन्धित समूह आ गया है। आचार्य का अयं बहुत व्यापक होता है-दीक्षा देने वाले, धर्म का गदैन, सन्मार्ग का ज्ञान और कर्तव्य को बोध देने वाले आनागं होते हैं। आचार नान दाता है, शिक्षस हैं। अपने से आयु में बड़े, ज्ञान एवं अनुभव में बड़े दोमा मादि में जोष्ठ जो है उन्हें स्थविर कहा जाता है । तपस्या करने वाले, . तथा क्षम, वीमार, अस्वस्थ साधक भी मेवा के अधिकारी हैं। क्ष का है-नवदीक्षित! उसे आधार पति का अभी पूरा ज्ञान नहीं मिला हो के कारण तथा साधुचर्या की दोरता का अभ्यास न होने के कारण उसे भी दुसरो की सेवा की अपेक्षा रहती है। लो तरह मामि गुरु भाई, साली साधक, नंध आदि की भी सया---ए हल int है-मानसोही सेवा करता, उनकी परिमारना समानार समाधि एकता प्राप्त हो यता आवरमा करना है। यावल को fair area से तो बसा. मिकोटमा Friratष्ट बार लिया नायो । .. में : परम नो धोगितामध्य:- 4 trememurmamerion or merry.... ।
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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