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जैन धर्म में तप माज से ढाई हजार वर्ष पूर्व इसी प्रकार का एक प्रश्न केशीकुमार श्रमण में गणधर इन्द्रभूति गौतम से किया था
अयं साहसिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधाव ।
जंसि गोयम आरढो फहं तेण न होरसि ? हे गौतम ! यह घोड़ा बड़ा दुस्साहसिक और दुष्ट स्वभाव वाला है, तुम उस पर आरूढ--सवार हो, तो क्या तुम्हें बह घोड़ा कोई कष्ट नहीं देता ? गौतम ने उत्तर दिया
मणो साहसिओ भीमो दुस्सो परिघावइ ।
तं सम्मं तु निगिहामि धम्म सिक्लाइ कंचगं !' मन का यह साहसिक-दुष्ट घोड़ा है, बड़ा ही जनल व रोज ! मैं धर्म शिक्षा रूप लगाम से उसे अपने वश में किये गता। इसलिए वह मुझे कोई परेशान नहीं करता, जिधर भी उसे दौड़ाना चाहता है यह धरती दौड़ता है ! घोड़ा अपने गन से नहीं, किन्तु बार के मन से नले,बा-गी में सवारी दक्षता है । वही सच्चा अपमानही है ! ___ गौतम स्वामी ने मन के गोड़े को मोड़ने गा, पश में गरमा मह तरीका बताया है .. घमं शिक्षा ! धर्म शिक्षा का अर्थ है--विवेक ! गपिनार, उच्चगंकल्प ! मन को सुबिधानों ने रोकने का नही एका तानीका - मद बिनार! - आचार्य हेमाद्र ने गन गोमन वनाने का मन बनाए :
तो:पि यत्र गज प्रपाते नो ततस्ततो माम् ! अश्किीमति . याश्मिरतं गांतिमुपयाति ! मतो हलो पटनानियामागोषिषो मति पदबद ।
নিয়াস্তি দাগা গয়া গায়ন সংস্থ। -~नजिन में प्रो . या ri मा प्रान पाना नाशिक : मा