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भिक्षाचरी तप
૨૪ सट से जैसे तैसे तैयार होकर जाने की जल्दी करता है, इधर-उधर देखता हुआ जल्दी-जल्दी जाता है इससे न पूरी ईर्या समिति देखी जाती है और न ऐपणा समिति का ही विवेक रहता है। इस कारण पहली विधि यह बताई है कि भिक्ष असंभ्रान्त-अर्थात् स्थिर चित्त हो, गंभीर होकर गजगति से धीरे-धीरे नीचे देखता हुआ भिक्षा के लिए जाये। दूसरी बात है-- अमूछित भाव रखे। आहार के प्रति आसक्ति न रखे। स्वादिष्ट माहार के प्रति गृद्ध न होकर बिलकुल अनाकुल एवं अनासक्त रहे । गृहस्थ के घर में जाये तो वहां भी शब्द, रूप, रस आदि में मूच्छित न हो। घर में गुन्दर युवतियां भी होती है, कन्याएं भी होती हैं, सुन्दर-यस्य आभूषण भी पढ़े रहते हैं। विविध पकवान, मिठाइयों से बाल भरे होते हैं, भिक्षु उनकी तरफ आं उठाकर भी न देखें। उसे तो जो वस्तु मिल रही है, बस उगी नी शुद्धाशुद्धि की गवेपणा में ध्यान रहे।
अच्छा भाव को समझाने के लिए आनायं जिन दाम ने गोयल का . सुन्दर उदाहरण दिया है । जो इस प्रकार है.---
किसी नगर में एनधनाट्य सेव था। उसने एक गाय पाल गोपी। उस गाय को एक बड़ा धा । संठ की पुत्र-वधू बछड़े की बड़ी सेवा करती, उसे अपने हाय ने मारा मालती, पानी पिनाती और सम-समय पर जानी गंगाल गती !
क बार सेट में घर में कोई उपाय ! मार मे गे महमान माये । भर में सभी लोग सलय को तमानी में और सामानों के सामनमनार में लग गर । म नि माया मा पानी भी लोमन गरें । मेह को पिलो और सुपर बातों में मजा माना स्थामा मारी । मन मार के मारे बार मामा । मी भावान गुमर मा नौलो ना ! को हिमा का नाम भी नहीं ! मोटी। इसमे । में नर नर मादी ने
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