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जैन धर्म में तप
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बताया है । किस समय भिक्षा करनी चाहिए और किस समय नहीं करनी चाहिए इसका विवेक भी साधु को रखना होता है ।
आचार्य जिनदास गणी ने चूर्णि में एक कथा प्रसंग देते हुए बताया हैएक मुनि भिक्षा का काल टालकर अकाल में भिक्षा के लिए घूमता था । उस समय घरों में कहीं चौका उठ जाता, कहीं रसोई बन्ध मिलती । फल यह होता कि मुनि भूखा-प्यासा ही खाली झोली लेकर लौट आता । एकवार उसे खाली लोटते देखकर कालचारी- (सयम पर भिक्षा करने वाले ) मुनि ने पूछा- क्यों सुने ! भिक्षा मिली कि नहीं ?
वह बड़-बड़ाकर बोला- कैसा है यह गांव ! सब भिखारी रहते हैं यहां पर ! कहीं भी भिक्षा नहीं मिली !
इस पर वह कालचारी भिक्षु बोला- मुने ! इसमें भूल तो तुम्हारी है और गांव को दोष दे रहे हो !
अकाले चरसि भिक्खु ! कालं न पडिलेहसि !
अप्पाणं च फिलामेसि सन्निवेसं च गरिहसि !
भिक्षु ! तुम समय को तो देखते नहीं हो, वैसमय में भिक्षा के लिए घूमते हो, फिर भिक्षा मिलती नहीं तो स्वयं भी सेद सिप्न होते हो और गांव को भी गालियां देते हो ! तो यह दोष गांव का नहीं, तुम्हारा ही है ।" इस कथा प्रसंग को देकर बताया गया है कि भिक्षु जिस देश में रहता हो, जहां विहार करता हो उस देश के भिक्षा काल का भी ज्ञान से और जन वहां शिक्षा का समय हो तब भिक्षा के लिए जाये !
संपत freeकाम्म असंतो अमुच्छि !
भिक्षा का समय होने पर असंधान्त अर्थात् अनकुल और अनाशल भाव मे भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए !
यह
होता है कि भिक्षा का कोई गम में नहीं बताया गया है ? उत्तर है आगमों में क्षमता
१ पनि शरी
वैधानिक प्र११११