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तप (मोक्षमार्ग) का पलिमंयु : निदान से भटक जाता है, वह भूल जाता है-"चलना अभी है दूर, यहाँ पर रुकना नहीं है।" ___ वह अपनी मोक्ष यात्रा के मार्ग को भूलकर संसार की भूल-भुलैया में उलझ जाता है और फिर निदान कर बैठता है-"कि मेरे ब्रह्मचर्य, शील, तप आदि का यही फल मिले, मैं अगले जन्म में इन भोगों को प्राप्त करूं।"
निदान की भावना जव साधक के मन में जागृत होती है तो वह अपनी साधना से भी पतित हो जाता है । क्योंकि उस भावना के वश होकर वह एक प्रकार से मनसा-भोग भोग लेता है । संयम और साधना तो परिणामों पर ही टिकी है । मन जब संसारी हो गया, तो तन भले ही संन्यासी का रहे, उससे क्या लाभ होगा ? भावना से गोगों में आसक्त हो गया, तो तन से भले ही वह दूर रहे, किन्तु वह अपने तप से तो पतित हो ही जायेगा। फिर जब तक वह अपने इस मनसा पाप की आलोचना नहीं करेगा, धर्म में स्थिर नहीं हो सकेगा, चारित्र को सम्यक् आराधना कैसे कर पायेगा। दशाभुत स्कंध में इस सम्बन्ध में एक प्रसंग हैं -
श्रेणिक नपाल पटनार चेलना के साथ
वीर जिन वन्दन को मोद घरी आयो रे । दोनों को दीदार भव्य भाल के श्रमण कई
महासतियों को वृन्द रूप मन चायो रे । किया है नियाणा तव प्रभु मगधेश भणी
कह्यो मेरो समोशर्ण डाको तू डलायो रे । भेद खोलतां ही सबै निजातम शुद्ध करी
____ 'मिश्री' मुनि कहे नाथ साथ कवचायो रे । एक बार महाराज श्रेणिक रानी चेलना आदि राज परिवार के साथ भगवान महावीर की वन्दना करने के लिए आये। राजा श्रेणिक एवं चेलणा के अपूर्व सौन्दयं, लावण्य एवं सब प्रकार के मानवीय भोगों को आनन्द पो साथ भोगते हुए देखकर भगवान के श्रमणों के मन में एक संकल्प उठा--"अहो ! यह राजा श्रेणिक धन्य है ! जो रूप लावण्यवती रानी