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जैन धर्म में तप मार्ग पर तथा साथ ही उनके द्वारा निपिद्ध कायों पर चिंतन-मनन करना यह धर्म ध्यान का प्रथम भेद है-आज्ञाविचयः । ___ २ अपाय विचय--अपाय का अर्थ है-दोप या दुर्गुण ! आत्मा में अना दिकाल से पांच दोष छुपे हुए हैं-मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद. कपाय एवं योग . . (अशुभ योग) इन दोपों के कारण ही आत्मा जन्म मरण के चक्र में भटकता... है, दुःख, वेदना एव पीड़ा प्राप्त करता है। इन दोषों के स्वरूप पर विचार करना, उनसे छुटकारा कैसे मिले, कैसे उनको कम किया जाय तथा किन-किस . ' साधनों से उन दोपों की शुद्धि हो सकती है, इस विषय पर चिंतन करना अपाय वित्रय है। चिंतन करने से ही चिंता दूर होती है, विचार करने से ही विचार शुद्ध होता है-अतः दोपों के विषय में विचार करने का फल होगा दोपों से विमुक्ति ! तो यह धर्म ध्यान का दूसरा स्वरूप है।
३ विपाक विचय-ऊपर जो पांच दोष बताये हैं वे ही कर्म बंधन के कारण हैं । क्योंकि वह पाँचों प्रमाद है और प्रमाद ही वास्तव में कर्मबंध का हेतु होने से स्वयं भी कर्मरूप है~पमायं कम्म माहंसु । कर्म बांधते समय मधुर भी लगते हैं, तथा उनके परिणाम की सही कल्पना भी नहीं होती किंतु ऐसा अज्ञानी एवं मोहग्रस्त आत्मा को ही होता है । ज्ञानी आत्मा तो कमों के. विपाक को समझता है । वह मानता है
___ सयमेव फडेहिं गाहइ नो सस्स मुच्चेज्जऽपयर आत्मा अपने स्वयं किये हुए कर्मों से ही बंधन में पड़ता है और जब तक उन कामों को भोगा नहीं जायेगा, उनसे मुक्ति नहीं होगी। आसक्ति, अज्ञान एवं मोहबदा बांधे हुए कर्म जव फल में, विपाक में आते हैं तो उनका भोग बहुत ही दुखदायी एवं ग्रासजन्य होता है-जं से पुणो होइ दुहं विवागे' वे कर्म विपाक के समय बहुत ही दुःखदायी होते हैं। भगवान ने शुभागुन कमों के विपाक-परिणामों को बताने वाले अनेक ऐतिहासिक पृष्टांत भी दिए
१ सुमतांग १३ २ मुमतांग १४ ३ उत्तराध्ययन ३२१४६