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ध्यान तपं
इन दो ध्यानों को ही परम तप कहा गया है - षट्खण्डागम' में कहा है - " धर्म एवं शुक्ल ध्यान परम तप है, वाकी जितने तप हैं वे सब इस ( ध्यान ) के साधन मात्र हैं ।" तो इस परम तप रूप ध्यान में प्रथम हैधर्म ध्यान ! धर्म ध्यान के स्वरूप, लक्षण, आलम्बन आदि पर संक्षेप में हम यहां विचार करेंगे ।
आगमों में धर्म ध्यान के चार प्रकार बताये हैं
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धम्मे झाणे चउव्विहे - पंपण ते तं जहा
आणा विजए, अवाय विजए, विवागविजए, संठाण विजए |
धर्म ध्यान के चार प्रकार है
१ आज्ञा विचय-विचय' का अर्थ है निर्णय या विचार करना । आज्ञा के सम्बन्ध में चिंतन करना आज्ञा विचय' है । प्रश्न है - आज्ञा किसकी ? उत्तर है- -- आज्ञा उसी की मान्य होती है जो हमारा श्रद्वय एवं परम पूज्य हो, स्वामी हो और वीतराग हो । उनकी आज्ञा ही वास्तव में धर्म हैंआणाए मामगं धम्मं —जो धर्म है, वही उनकी आज्ञा है, और जो आज्ञा है वही उनका धर्म है । आणा तवो आणाइ संजमो -- आज्ञा में तप है, आज्ञा में संयम है । इसलिए आज्ञा का अर्थ है- वीतराग भगवान द्वारा कथित धर्म ! प्रभु का वैराग्य एवं निवृत्ति मय उपदेश । तो उस भगवद् कथित धर्म का, प्रभु के उपदेश का चिंतन करना । उनके द्वारा उपदिष्ट तत्व पर अटल श्रद्धा रखना ——क्योंकि विना श्रद्धा के किसी वस्तु पर चिंतन नहीं किया जा सकता । विश्वास के विना लीनता नहीं आती, अतः पहले उस तत्त्व पर यह विश्वास रखे कि - तमेव सच्चं नीसकं जं जिणेहि पवेइयं जिनेश्वर देव ने जो तत्व बताया है, वही सत्य है, उसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं । इस प्रकार की अटल आस्था रखकर उस तत्व के स्वरूप पर, प्रभु द्वारा उपदिष्ट
१
पट्खण्डागम ५, पु० १३, पृ० ६४
२
भगवती २५७॥ स्थानांग ४।१ तथा उबवाई आदि ।
३ आचारांग ६।२
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सम्बोधरि ३२