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. जैन धर्म में तप .. आगमों का जो रूप है वह इस रूप में मिलता और हमें इतनी तत्व की बातें जानने को मिलती ? तो पृच्छना, ज्ञान को सत्योन्मुखी बनाती है,स्थिर बनाती है। पश्चिम के प्रसिद्ध दार्शनिक डेकार्ट, कांट, हेंगल आदि ने तो संशय को ही दर्शन का आदि सूत्र माना है। मनुष्य में जितनी मात्रा में इन्टेलेक्चुअल क्युरियासिटी-बौद्धिक कुतूहल होता है, वह उतना ही अधिक ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति करता है।
पृत्छना में दो बातों का विशेष ध्यान रखा जाता है-पूछना-जिज्ञासा पूर्वक होना चाहिए। सिर्फ दिमाग चाटने को ऊट-पटांग प्रश्न करना, ऐसे प्रश्न जिनका कोई तर्क युक्त समाधान न हो, या जिन से द्वेष व विवाद खड़ा होता हो इस प्रकार के प्रश्न नहीं करने चाहिए । प्रश्न में शुद्ध जिज्ञासा,ज्ञान .. प्राप्ति का निर्दोप उद्देश्य होना चाहिए।
दूसरी बात-जिससे पूछा जाय-उसका विनय व सत्कार करना चाहिए। प्रश्न की विधि है-प्रश्न करने से पूर्व हाथ जोड़कर उनसे पूछे कि"मैं आपसे अमुक वात पूछना चाहता हूं आप कृपा कर इसका उत्तर देंगे तो बहुत ही आभारी होऊंगा।" यह पूछने पर गुल्जन आदि उत्तरदाता जब प्रसन्न होके स्वीकृति दें तभी प्रश्न को ठीक ढंग से उनके सामने रखना चाहिए। समाधान पाकर फिर उनका आभार प्रकट करना चाहिए और विनय पूर्वक उठना चाहिए-प्रश्नोत्तर में विनय की शैली हमें गणधर गौतम के व्यवहार से सीखनी चाहिए। वे प्रश्न करने से पूर्व प्रभु की वन्दना कर अनुमति लेते हैं, स्वीकृति प्राप्त कर अपना प्रश्न रखते हैं और समाधान पाकर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहते हैं. - तहमेयं भंते ! प्रभु आपका कयन सत्य है, में इस पर श्रद्धा-विश्वास करता हूं। और फिर विनय पूर्वक बन्दना करके उठते हैं। प्रश्नोत्तर की यह बहुत ही सुन्दर शैली है, इसी शैली का . अनुसरण कर हमें अपनी जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त करना चाहिए। वास्तव में तो जिज्ञासा पूर्वक एवं विनय पूर्वक पूघ्ना-बही पृच्छना स्वाध्याय है। अविनय पुर्वा, या ऊट-पटाग प्रश्न करना स्वाध्याय नहीं है। . ३ परिवर्तना-पढ़े हए शान का, कंठस्थ किये हुए तत्व, पलोक आदि