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स्वाध्याय तप
शुद्ध विचार का ज्ञान प्राप्त हो, और आचार दृढ़ हो । स्व-दर्शन के बाद अन्य दर्शनों के ग्रन्थों का भी अवलोकन करना चाहिए, इससे दर्शनों व धर्मों का तुलनात्मक ज्ञान होगा, सत्य-असत्य की सूक्ष्म पहचान भी होगी और स्व- . दर्शन की आस्था अधिक दृढ़ होगी। इसी क्रम से ग्रन्थों को पढ़ने का चुनाव करना चाहिए । एक विद्वान ने भी इस विषय में कहा है
पहले वह पढ़ो, जो आवश्यक हों, फिर वह पढ़ो, जो उपयोगी हों,
उसके बाद वह पढ़ो, जिससे ज्ञान बढ़ता हो, २. पृच्छना- पढ़ते समय बहुत से प्रकरण, बहुत सी बातें ऐसी भी आती है जो पाठक की समझ में नहीं आए। अथवा उसमें कई प्रकार की शंकाएं उठने लगे- तब अपने गुरु जनों के पास, अथवा जो अधिक ज्ञानी हैं उनके पास विनयपूर्वक पूछना और उनसे समाधान प्राप्त करना यह पृच्छना स्वाध्याय है।
पृच्छना-पूछना स्वाध्याय व ज्ञानप्राप्ति का एक महत्त्व पूर्ण अंग है। क्योंकि शंका व जिज्ञासा होना तो मनुष्य मात्र का सहज स्वभाव है। जव तक केवलज्ञान प्राप्त न होगा शंका एवं जिज्ञात तो उठती ही रहेगी और उठनी ही चाहिए । शका दो को ही नहीं होती-या तो सर्वज्ञ को, या सर्वथा जड़बुद्धि को। जिसमें थोड़ा भी ज्ञान का स्फुरण होगा-विचारों की हलचल होगी उसे संशय, शंका, जिज्ञासा अवश्य होगी। संशय कोई बुरा नहीं है। आगमों में स्थान-स्थान पर आता है-गौतम स्वामी ने अमुक वात सुनी, अमुक वात देखी- वस मन संशय से, जिज्ञासा से आन्दोलित हो उठाजाय संसए, जायसड्डे जाय फोउहल्ले-ये शब्द जैन सूत्रों में सैकड़ों वारं . आये हैं, और यह सूचित करते हैं कि संशय, जिज्ञासा-जीवित मस्तिष्क का . चिह्न है, प्रबुद्ध ज्ञान चेतना का लक्षण है । गीता में इसीलिए तो कहा है
न संशय मनारुह्म नरो भद्राणि पश्यति संपाय किये बिना-मनुष्य अनेक अच्छी-अच्छी बातें देख नहीं पाता । यदि गौतम स्वामी जिज्ञासा करके भगवान से प्रश्न नहीं पूछते तो क्या आज जन