________________
जैन धर्म में तप
५०२
की श्रेणी में आरूढ़ होकर अयोगी केवली वन जाता है । यह परम निष्कम्प व समस्त क्रिया योग से मुक्त ध्यान दशा है इस दशा को प्राप्त होने पर पुनः उस ध्यान से निवृत्ति हटना नहीं होता इसी कारण इसे समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति शुक्ल ध्यान कहा है। इसी ध्यान के प्रभाव से आत्मा के साथ रहे.. हुए शेष चार कर्म शीघ्र ही क्षीण हो जाते हैं और अरिहंत भगवान -- -वीतराग आत्मा- सिद्ध दशा को प्राप्त कर लेते हैं ।
प्रथम दो भेद सातवें से बारहवें गुणस्थान तक माने गए हैं। तीसरा रूप तेरहवें गुणस्थान में रहता है । तथा चोथे ध्यान में आत्मा चौदहवें गुण स्थान में प्रवेश कर जाती है । प्रथम दो ध्यान सालम्बन है- उनमें श्रुत ज्ञान का आलम्वन रहता है किन्तु शेष दो ध्यान - निरवलम्ब ध्यान है, उनमें किसी भी सहारे व आलम्बन की अपेक्षा नहीं रहती ।
शुक्लध्यान के चार लिंग व आलम्बन शुक्लध्यानी आत्मा के चार चिह्न हैं । वह इन चिह्नों (लिंगों) से पहचाना
जाता है
vid
१ अन्यच - भयंकर से भयंकर उपसगों में व्यक्ति चलित नहीं होता । २ सम्मोह - सूक्ष्म तात्विक विषयों में, अथवा देवादिकृत माया से सम्मोहित नहीं होता । उसकी श्रद्धा अचल रहती है।
३ विवेक - आत्मा और देह के पृथक्त्व का वास्तविक ज्ञान उसे होता है । कर्तव्य अकर्तव्य का सम्पूर्ण विवेक उसमें जागृत होता है ।
४ व्युत्सर्ग- समस्त आसक्तियों से, भोजन, वस्त्र तथा देह की आसक्ति से भी सर्वथा मुक्त रहता है। उनका मन परम वीतराग भाव की ओर बढ़त गतिशील रहता है |
इन चार लक्षणों से पहचाना जा सकता है कि अमुक आमा ध्यान की योग्यता रखता है |
गुलध्यान रूप महल पर बढ़ने के लिए चार आतंकन भी शास्त्रों में बताये गये हैं । म्बन से मतलब यही है कि प्रारम्भिक में बिना आलम्ब के मन स्थिर नहीं होता । मन लापस्यकता होती है में यह बताये गये हैं।
के लिए जिन सपनों की
--