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ध्यान तप
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रखने की चिंता, कि कहीं ये छूट न जाय और भविष्य में उन्हें बनाये रखने को चिन्ता, तथा अगले जन्म में भी वे काम-भोग कैसे प्राप्त हों ताकि मैं वहां भी सुख व आनन्द लूट सकू- इस प्रकार का चिन्तन, चिन्ता और भविष्य की आकुलता, आर्त ध्यान का चौथा कारण है । इस आर्त ध्यान में भविष्य चिंता की प्रमुखता रहती है अतः इसे निदान भी माना गया हैं, जिसके सम्बन्ध में प्रथम खण्ड के "तप का पलिमंथु-निदान" शीर्षक से विचार किया गया है ।
- जो आत्मा आर्त ध्यान करता है-उसकी आकृति बड़ी दीन-हीन, मुईि हुई, शोकसंतप्त तो रहती ही है, किन्तु कभी-कभी तो यह चिन्ता एवं व्याकुलता सीमा भी लांघ जाती है। रोना, छाती व सिर पीटना आदि तक पहुंच जाती है । आर्त ध्यान वाले की स्थिति का दिग्दर्शन कराने के लिए उसके चार लक्षण बताये गये हैं
अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा
. कंदणया, सोयणयाः तिप्पणया, परिदेवणया।' १ क्रन्दनता-रोना, विलाप करना, चिल्लाना । २ शोचनता-शोक करना, चिन्ता करना। ३ तिप्पणता--आंसू बहाना,
४ परिदेवना-हृदय को आघात पहुंचाए ऐसा शोक करना, गहरी उदासी, विलखना, तथा दुख-विह्वल होकर सिर छाती आदि पीटना । ये चारों ही लक्षण मन की दुःखित एवं व्यथित दशा के सूचक हैं।
इन लक्षणों से पहचाना जा सकता है कि यह व्यक्ति दुखी, आतं एवं . चिन्ता ग्रस्त है।
फरता प्रधान-रौद्र ध्यान आतं ध्यान में जहां दीनता-हीनता एवं शोक की प्रबलता रहती हैं वहां रोद्र ध्यान में क्रूरता, एवं हिंसक भावों की प्रधानता होती है । आत घ्यान प्रायः ... आत्मघाती ही होता है, रौद्र ध्यान आत्मघात के साथ पराघात भी करता
१ भगवती नुत्र २५१७ तथा स्थानांग ४१ एवं उपवाई सूत्र
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