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जैन धर्म में तप अशुभ की और बढ़ने वाली होती है, उससे आत्मा का पतन होता है । और जो चिंतन, जो एकाग्रता निम्न गति की ओर ले जाए वह कभी भी ग्राह्य नहीं । इसलिए भगवान महावीर ने कहा है
अट्ट रुद्दा णि वज्जित्ता झाएज्जा सुसमाहिए।
धम्म सुक्काई शाणाई झाणं तं तु बुहा वए।' समाधि एवं शांति की कामना रखनेवाला आर्त एवं रौद्र ध्यान का त्याग करके धर्म एवं शुक्ल ध्यान का चिंतन करें। वास्तव में ये दो ध्यान ही ध्यान-तप कहे गये हैं।
इसका अभिप्राय है-ध्यान भले ही चार प्रकार के हों, किन्तु चारों ध्यान तप नहीं है, घ्यान तप की कोटि में तो सिर्फ दो ही ध्यान है-धर्म ध्यान एवं शुक्ल ध्यान ।
धर्म का अर्थ है-आत्मा को पवित्र बनाने वाला तत्व । जिस आचरण से आत्मा की विशुद्धि होती है-उसे धर्म कहते हैं । उन धार्मिक विचारों मेंआत्मशुद्धि के साधनों में मन को एकाग्र करना-अर्थात् पवित्र विचारों में मन को स्थिर करना धर्म ध्यान है । वास्तविक दृष्टि से यह धर्म-एवं शुक्ल ध्यान ही आत्म-ध्यान है। आचार्यों ने बताया है कि आत्मा का. आत्मा के द्वारा, आत्मा के विषय में सोचना, चिंतन करना-यही ध्यान दे, यही आत्म ध्यान है । इन व्यानों में आत्मा पर-वस्तु से हटकर स्व-लीन हो जाता है, अपने विषय में ही चिंतन करने लगता है और चिंतन करतेकरते आत्मस्वरूप का दर्शन कर लेता है। इसी ध्यान रूप अग्नि के द्वारा आत्मा कर्म रूप काष्ठ को जलाकर भस्म करता है और अपना शुद्ध-बुद्ध सिद्ध-निरंजन स्वरूप प्राप्त कर लेता है-ध्यानाग्नि दग्ध कर्मातु सिवारमा स्थानिरञ्जनः ।
१ दशवकालिक अ. १ वृत्ति २ तत्वानुगासन ७४ ३ योगशास्त्र (आचार्य हेमचन्द्र) .