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बहुश्रु त विद्वान्, मधुर वक्ता श्री मधुकर मुनि जी महाराज
जैन धर्म की साधना का प्राणतत्व 'तप है। जैसे पुष्प की कली-कली मे सौरभ समाया हुआ है, ईख के पौर-पौर मे माधुर्य परिव्याप्त है और तिल के कण-कण मे स्नेह संचरित है, वैसे ही जैन धर्म के प्रत्येक चिन्तन मे तप परिव्याप्त है ।
जैन आगमो मे तथा प्रकीर्ण ग्रन्थो-नियुक्ति, भाष्य, चूणि एव टीका आदि मे तप का बहुविध विवेचन किया गया है। वह विवेचन-चिंतन है तो वहुत ही सूक्ष्म एव उपयोगी, किन्तु बिखरा हुआ होने से पाठक उससे उपयुक्त लाभ नही उठा पाते । ऐसे एक ग्रन्थ की बहुत बडी कमी थी जो उस समग्न विवेचन को सरल, सुबोध एव सरस शैली के साथ पाठको को उपलब्ध करा सके।
श्रद्धेय श्री मरुधरकेसरी जी महाराज ने उस अभाव की पूर्ति कर एक महनीय कार्य संपन्न किया है । तप के विपय मे इतना विशाल, प्रामाणिक तथा हृदयग्राही विवेचन अपनी समग्रता के साथ शायद पहली वार हिन्दी भाषा मे प्राप्त हुआ है। प्राकृत, सस्कृत एव अपन्न श आदि भापाओ में भी इस शैली का गथ मेरे देखने में नहीं आया।
अन्यकार मुनि श्री जी कोटिश धन्यवादाहं है, साथ ही सपादक श्री 'सरस' जी भी इस सत्प्रयत्न एव कुशन मपादन के लिए बधाई के पात्र हैं।