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________________ जैन धर्म में तप वज्रमध्य चन्द्र प्रतिमा इसका क्रम कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर चन्द्र कला को हानिवृद्धि के अनुसार दत्ति को हानि-वृद्धि से बाकृति बनती है | उदाहरणार्थं कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को १५ दत्ति, द्वितीया को १४. यो घटाते घटाते अमावस्या को एक दत्ति | शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को और फिर क्रमशः एक-एक दत्ति बढ़ाते हुए चतुर्दशी को १५ दत्ति और पूर्णिमा को उपवास किया जाता है। इस तप का काल मान एक मास का है। देखिये चित्र परिशिष्ट १ में । ६४ लघुसिह निष्कोटित तप - सिंह गमन करता हुआ पीछे मुड़कर देता. है यह सिंह का जातिगत स्वभाव है । इसी अर्थ में सिंहावलोकन शब्द ता है। सिंह को इसी गति के क्रम से आगे बढ़ना और साथ ही पीछे आना, फिर आगे बढ़ना और फिर पीछे जाना - इस गति से जो तप किया जाता है यह सिंहनिष्योडित तप कहलाता है । यह दो प्रकार का है-एक लघु ए निष्कीदित दूसरा, महासिंहनिष्कीडित ! लघुसिंह निष्कोदिन तप में अधिक से अधिक नौ दिन की तपस्या की जाती है, और फिर उसी श्रम से तप का उतार होता है । इम की एक परिपाटी में ६ मा ७ दिन लगते हैं। चारों परिपाटी में २२८द लगते है । यह तप महाकाली ने किया था । समने के लिए विदे शिष्ट १ में । तितका नजर में अधिक से अधिक जाती है. होता है और फिर से महासिंह निति तप-घुसिंह किया गया है। तव में अधिक भी है। दते है। को भी मार परियारी होती है परिवाद में वर्ष १२ दिन मग हैं। अंगद सूकीमती कृष्णा को भी -- ए केबीसी के
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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