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जैन धर्म मे तप
शक्ले-इन्सा मे खुदा था, मुझे मालूम न था,
चांद वादल मे छिपा था, मुझे मालूम न था। में यही बता रहा था कि हमारा स्वरूप क्या है ? वह कहा है ? हमारा स्वरूप है परम विशुद्ध, निर्मल कर्म मुक्त दशा । शकराचार्य के शब्दो मे कह नो
जाति-नीति-कुल-गोत्र दूरग
नाम रूप-गुण-दोप-वजितम् । देशकाल-विषयातिवति यद्
ब्रह्मतत्वमसि भावयमात्मनि ।' जो जाति, नीति, कुल और गोत्र के झमेलो से दूर है, रूप, गुण और दोप से रहित हैं, देशकाल और विपय से भी पृथक् है, उनका भी जिम पर कोई प्रभाव नहीं होता, तुम वही ब्रह्म हो, अपने अन्तःकरण मे ऐसी भावना फरते रहो।
यह है आत्मा का स्वरूप । जनदर्शन ने भी आत्मा के मूल स्वरूप की चर्चा करते हुए कहा है-आत्मा परम ज्ञानमय, ज्योति स्वरूप है। कहा है
जे आया से विनायारे जो आत्मा है, वहीं विज्ञाता है-वहा अधकार तो कुछ नाम मात्र का भी नहीं है, परम ज्योति जल रही है, वह ज्योति कभी बुझती नहो, क्षय नहीं होती, हां कर्मावरणो ने आवृत जरूर हो जाती है, किंतु वुझ नही सकती है।
अनन्त मुखमय रूप आत्मा का अपना मप है अनन्त सुबमय । भगवान महावीर ने पूछा--- आत्मन्बर। गंगा नो बताया--
राउल सुह नपना उपमा जन्त नत्यि उ
१ मिति २५५ । २ नानागग १५ उनगमन ३६६