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जैन धर्म में तप
वेश्या बोली -- कल इस घर की एक काली-कलौटी लड़की ने एक मैले. कुचेले साधु को उड़द के वाकले दिये थे जिससे रत्नों की अपार वर्षा हुई । इधर आप भी न्हाये धोये उजले कपड़े पहने हैं और मैं भी न्हा घोकर आप को मिष्टान्न खिला रही हूं । तो अभी तक रत्नों की वर्षा क्यों नहीं हुई ?.... वेश्या की मूर्खता पर बावाजी को हँसी आ गई । वे बोले---.
वा सती वो साध थो, तू वेश्या मैं भांड़ ! यांरे-म्हारे योग सूं पत्थर पडसी रांड !
तो चंदना के दान में कितनी पवित्रता, कितनी निष्कामता थी, और वेश्या के दान में, वास्तव में वह दान भी नहीं था, वह तो मूर्खता पूर्ण सौदा था । तो बताना यह है कि निष्काम भाव से सुपात्र को दिया हुआ उडद का वाकला भी कितना महान फल देने वाला सिद्ध हुआ ! इसी प्रकार शुद्ध भाव से आत्मशुद्धि के लिए किया गया जप, तप, दान, सत्कर्म सभी अचिंतनीय और महान फल देने वाले हैं। भगवान महावीर ने इसीलिए कहा है— एक उपवास भी, एक नवकारसी भी किसी भौतिक कामना से नहीं करो । तप से पूजा, सत्कार स्वर्ग और देवी देवताओं की आराधना मत चाहो
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नो पूयणं तवसा आवहेज्जा'
तप से पूजा आदि की कामना मत करो, किन्तु तपस्या में एक ही पवित्र लक्ष्य सामने रखो - आत्मा की शुद्धि हो, कर्मों की निर्जरा हो ! कर्म दुख का मूल है, वह कर्म जब क्षय हो जायेगा तो दुःख अपने आप ही क्षीण हो जायेगा ।
तप से लाभ
भगवान ने बताया है कि तपस्या से आत्मा पवित्र होती है, सम्यक्त्व शुद्ध होता है । और आत्मा का ज्ञान, दर्शन, चारित्र, निर्मल, निर्मल तर होता जाता है
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तवसा अवहट्ट लेसस्स दंसणं परिसुज्झइ
सुत्रकृतांग ७।२७
दशाश्रु तस्कन्ध ५६