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तप का उद्देश्य और लाभ मुझे आपके दर्शनों के लिए उस पार से इस पार आते समय नदी पार करने में कोई कठिनाई नहीं होगी। नाव की इन्तजार भी नहीं करनी पड़ेगी, जव चाहूँगा, तभी चला आवगा।" .
शिष्य की शेखी पर गुरुजी को कुछ हँसी भी आई और घृणा भी ! बोले-'मूर्ख ! क्या इस दो पैसे की सिद्धि के लिए ही चौदह वर्ष तक शरीर को सुखाकर कांटा बनाया है ? इसी काँच के टुकड़े के लिए जीवन के चौदह अमूल्य रत्न खोये हैं ? कोई भी नाविक सिर्फ दो पैसा लेकर तुझे नदी के इस पार से उस पार पहुंचा सकता है । इतनी सी तुच्छ वात के लिए इतना अहंकार ! अच्छा होता तू चौदह वर्ष क्या, चौदह दिन ही निष्काम भाव से कुछ भगवान का भजन करता तो तेरी आत्मा कितनी ऊँची उठ गई होती !"
तो इस समस्त विवेचन का सार यह है कि साधक के सामने तप का उद्देश्य बहुत महान, बहुत ऊँचा रहना चाहिए । उसका पवित्र उद्देश्य एक ही होना चाहिए-तप द्वारा कर्म निर्जरा, कर्म मुक्ति । मुक्ति का महान फल सामने रखकर ही उसे तपः साधना करनी चाहिए।
तप-जप सेवा साधना दान और सत्कर्म ।
'मिश्री' मुक्ति हित करो, यही परम है धर्म । लोग सामायिक करते हैं, दान देते हैं, थोड़ी सी सेवा करते हैं और सोचते हैं, इससे हमें अमुक लाभ मिलना चाहिए, हमारी कीर्ति होनी चाहिए । दान दिया तो हमारा नाम अखवार में छपना चाहिए ! तेला किया तो देवता स्वप्न में आकर दर्शन देने चाहिए'-यह सव आकांक्षाएँ, लालसाएँ उस सत्कर्म के फल को क्षीण और वर्वाद करने वाली हैं। आपने भगवान महावीर के जीवन प्रसंग में सुना होगा-चंपा नगरी में जव चंदनबाला ने भगवान को उडद के वाकले बहराये तो आकाश से रत्नों की वर्षा हुई। समूची धरती रत्नों से, हीरों पन्नों से भर गई। यह देखकर एक वेश्या ने भी अपने बाबाजी को बुलाया, खूब मिष्टान्न खिलाये और बार-बार आकाश की तर्फ देखने लगी। यह देखकर वावाजी ने पूछा-बार-बार ऊपर क्या देखती है ? . .