SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिसंलीनता तप • ३३५ तो यह और भी विडम्बना की बात है कि त्यागी वैरागी व ज्ञानी कहलाने वाले अज्ञानी लोगों से ज्यादा क्रोध करें। क्रोध की तो शुरूआत ही अज्ञान व मूर्खता से होती है । इसलिए साधक को, तप की आराधना करने वाले को तो क्रोध का सर्वज्ञा ही परित्याग करना चाहिए। नीतिकारों ने कहा है-- हरत्येक दिनेनैव ज्वरं पाण्मासिकं बलम् । क्रोधेन तु क्षणेनैव कोटिपूर्वाजितं तपः ॥ एक दिन का ज्वर (बुखार) छ महीने में प्राप्त की हुई शक्ति को नष्ट कर देता है, और एक क्षण भर का क्रोध-कोड़ पूर्व की तपस्या को भी मिट्टी में मिला देता है। क्रोध से कितने अनर्थ उत्पन्न होते हैं इस सम्बन्ध में कहा गया है - गती खोटी पावे भव भ्रमण आगे बढ़त है, अहो सिंहादि को प्रफट पशु योनि मिलत है। तपस्या को बाले, सफल गुण व्हाके खिसकते । अच्चुकारी भट्टा सरिस बन छोड़ो, प्रियवरो! क्रोध से मनुष्य की गति—यह जन्म और पर जन्म बिगड़ जाते हैं --अहो वयइ फोहेण-क्रोधी हमेशा नीची-से नीची गति प्राप्त होता है, तपस्या का फल जलकर भस्म हो जाता है, गुण समूह नष्ट हो जाता है। इस लिए क्रोध के कुफल को समझकर अच्चंकारी भट्टा की तरह अपने क्रोध को जीतो। ___शरीरशास्त्री लोगों ने अनुमान लगाया है कि एक स्वस्थ मनुष्य दिन में साढ़े नौ घन्टा तक कठोर श्रम करने पर जितनी थकावट अनुभव करता है, साढ़े नौ घन्टा के श्रम में उसकी जितनी शक्ति क्षीण होती है, उतनी शक्ति पन्द्रह मिनट के मोघ में क्षीण हो जाती है । एफ तौर : तीन शिफार क्रोध शरीर को भी नष्ट करता है, मन को भी दुर्वल बनाता है और मात्मा को तो पालुपित करता ही है।
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy